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पू० श्रीरोडीदासजी म०
संथारा अर्थात् अनशन ग्रहण कर लिया। इस महान तपस्वी को अपने जीवन सूर्य के अस्त होने का दिन विदित था- संथारा ग्रहण करने के तीसरे दिन विक्रम सम्वत् १८६१ को फाल्गुन कृष्णा अष्टमी के दिन ये भारत के उज्जवल तपस्वी, समाधिपूर्वक नश्वर देह का परित्याग कर. देवलोक की भव्य, उपपात शय्या पर जा बिराजे । - उदयपुर के श्रावक संघ ने भव्य बैकुण्ठी. बनाकर तपस्वीजी के पुद्गलमय देह को उसमें स्थापित किया । इस अन्तिम शवयात्रा में उदयपुर और आसपास के गांवों की मानव मेदिनी तपस्वीजी के अन्तिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ी । हजारों की संख्या में लोगों ने अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अश्रुभीने नयनों से प्रगट की। शवयात्रा जय-जय नन्दा और जय--- जयभद्दा की विजय घोष के साथ यथास्थान पर पहुँच कर समाप्त हुई। अन्त में, मैं सजाई गई। मनों खोपरा, चन्दन घृत आदि उसमें डाले गये और तपस्वीजी के पुद्गलमय देह को उस पर रख कर आग सुलगा दी गई। देखते ही देखते अग्नि की ज्योतिर्मय ज्याला ने तपस्वीजी के पुद्गलमय देह को स्वाहा कर दिया । तपस्वीजी का पुद्ग'लमय देह आज हमारे बीच नहीं है, किन्तु उनका अमर कीर्तिरूप देह युग युग तक जीवित रहेगा । तपस्वीजी श्री रोडीदासजी महाराज, साहब का विहार क्षेत्र प्रायः मेवाड़ प्रान्त ही रहा है। ____ अकेले उदयपुर में आप ने सोलह चातुर्मास किये । इस के वाद नाथद्वारे को आप के नौ चातुर्मास का लाभ मिला । लावा सरदारगढ़, रायपुर, भीलवाड़ा में दो-दो वर्षावास और सनवाड़, पौटला. गङ्गापुर, देवगढ़, कोटा, चित्तौड़ में एक-एक चातुर्मास किये । आपने कुल ३७ चतुर्मास किये । आप के अनेक शिष्य रत्ना थे। माप जिसे भी दीक्षित करते थे, उसकी अच्छी तरह परीक्षा करते थे। आप के द्वारा दीक्षित सभी सन्त प्रभावशाली निकले ।
तपस्वीजी के प्रधान शिष्य कविवर्य आचार्य श्री नृसिंहदासजी