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पू. श्रीमानमलजी स्वामी
था। उसने अल्प समय में ही पढ़ना, लिखना, तथा हिसाव करना सीख लिया ।
देवगढ (मदारिया) में इन दिनों में पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज साहव की परम्परा के पट्टधर आचार्य हसिंहदासजी महाराज अपने शिप्य समुदाय के साथ चातुर्मासार्थ विराजमान थे। श्री सिंह दासजी महाराज मेवाड़ सप्रदाय के अग्रगण्य आचार्य थे । इन्होंने जैन समाज में फैले हुए पाखंड और मिथ्याडम्बर को अनेक स्थलों पर नष्ट किया । राजस्थान के अनेक गाँव नगरों में श्री संघों में पड़े हुए प्राचीन कुसम्पों का अन्त किया । शुद्ध साध्वाचार का प्रचार करके स्थानकवासी मत का प्रवल प्रचार किया । आप शुद्धाचारी और कठोर तपस्वी थे।
बालक मानमल अपने पिताजी के साथ प्रतिदिन आचार्यश्री जी के दर्शन के लिये जाता और व्याख्यान श्रवण करता था। मुनियों के सानिध्य में रहकर उसने सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल, नवतत्त्व तथा भनेक रतवन सज्झाय सीख लिये । मुनियों के बार बार सहवास से वालक के मन में वैराग्य के अंकुर फूटने लगे। धीरे धीरे चालक मानमल की आत्मा वैराग्य रग में पूर्णतः रंग गई । अवसर पाकर एक दिन गुरुदेव से मानमल ने कहा--गुरुदेव ! मै ससार से ऊब चुका हूँ और ससार की असारता का भलीभाँति दर्शन और अनुभव कर चुका हूँ। मै अव साधु दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। ससार त्याग कर ही में आत्म-कल्याण कर सकता हूँ। धर्मोपदेश श्रवण करने मात्र से ही सुख शान्ति कभी किसी को प्राप्त नहीं हो सकती और न आजतक किसी को हुई है । धर्म के सिद्धान्तों पर चलने से ही मनुष्य जन्म जरा और मृत्यु के बन्धन से छूटता है और सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है । गुरुदेव । मुझे आप अपना शिष्य चनाकर अनुग्रहीत करें। गुरुदेव ने कहा- मानमल! तू होनहार वालक है। तेरी दीक्षा से अवश्य समाज का कल्याण होगा और शासन