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आगम के अनमोल रत्न
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धूप से घबड़ा कर खड़ी हो गई। उपर खिड़की में अरणक अपनी प्रेयसी से बाते कर रहा था। 'अरणक' 'अरणक' की आवाज अचानक उसके कानों में पड़ी। आवाज चिर परिचित सी मालूम दे रही थी। उसने नीचे की ओर झांक कर देखा तो आश्चर्य चकित हो गया। वह आवाज
और किसी की न होकर उसकी माता की ही थी। उसे अचानक महल के नीचे देखकर वह बाहर आया और स्नेह से उसके चरणों में गिर पढ़ा। पुत्र को देखकर माता के हर्ष का कोई ठिकाना न रहा । उसने कहा-"बेटा! तू यहाँ कैसे आ पहुँचा ? यों कहते-कहते उस वृद्धा की आँखों से आँसू बहने लगे। अरणक घबड़ा उठा। वह सोचने लगा "माता के प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जाय ? चेहरे का रंग उड़ गया। दिल अपराधी की तरह छटपटाने लगा। अन्त में उसने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा-"माँ ! अपराध हो गया है। क्षमा करो। भरणक की आँखों से आंसू बहने लगे। माता ने सान्त्वना देते हुए कहा-बेटा ! मैने तो तुमसे पहले ही कहा था कि चारित्र का पालन करना तलवार की धार पर चलने के समान है। चारित्र कीमती रत्न है। तूने उसे भोग विलास में पड़कर गा दिया है।"
• माता के वचन अरणक के हृदय में असर कर गये उसे बड़ी ग्लानि हुई। वह मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगा। माता ने पुत्र को पश्चाताप करते देखकर कहा-"पुत्र ! जो होना था सो हो गया। अब पाप के बदले प्रायश्चित करो ताकि तुम्हारी आत्मा पुनः उज्ज्वल वन सके ।" माता ने पुत्र को पुनः गुरुदेव की सेवा में उपस्थित किया। गुरुदेव ने उसे फिर से दीक्षित किया। अरणक ने पुनः दीक्षा लेकर अपने जीवन को धन्य बना दिया।
एक दिन अरणक ने गुरुदेव से कहा-"भगवन् ! जिस धूप ने मेरा पतन किया, उसीसे मै मात्मा का उत्थान करना चाहता हूँ।" ऐसा कहकर उसने ग्रीष्म ऋतु की कड़कड़ाती धूप में जलती हुई शिला पट्ट 'पर अपनी देह रख अनशन कर लिया और समभाव से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ समाधि-मरण कर देवलोक को प्राप्त हुआ।