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आगम के अनमोल रत्न
प्रशंसा सुनकर मैने ही देव की सहायता से तुम्हारा अपहरण करवाया है । देवी ! तुम चिन्ता मत करो।" यह महल तुम्हारा ही है । मैं जीवन भर तुम्हारा दास बनकर रहूँगा । यह राजपाट सब तुम्हारे चरणों में न्यौछावर है । अब तो तुम्हारे हृदय में स्थान प्राप्त कर मैं स्वयं को धन्य मानूंगा। मुझे विश्वास है कि मेरी यह प्रार्थना तुम स्वी-- कार करोगी। . द्रौपदी सती थी। सती स्त्रियाँ कठिनाइयों में भी कभी घबराती नहीं है और न वे कभी लोम में आकर अपना शील ही खण्डित होने देती हैं।
द्रौपदी ने कहा-राजन् ! तुम अपना धर्म भूल रहे हो। परस्त्री के सन्मुख इस प्रकार की बातें करना अधर्म है । उसे अपनी बनाने की चेष्टा करना पाप है । तुम इस पाप पंक में मत फंसो और धर्म को पहचानो । जो स्त्री अपने पति के स्णन पर किसी अन्य पुरुषका ध्यान स्वप्न में भी अपने मन में लाती है, उसका जीवन धिक्कार के योग्य बन जाता है। मेरा धर्म शील का पालन करना है और तुम्हारा धर्म मेरे शल की रक्षा करना है । मै अपना धर्म नहीं छोड़ सकती । मै चाहती हूँ कि तुम भी अपना धर्म न छोड़ो । मुझे अपने प्राणों से शील अधिक प्रिय है । मै अपनी शील रक्षा के लिये. प्राणों का भी त्याग कर सकती हूँ।
पद्मोत्तर यह सुनकर निराश हो गया। मगर द्रौपदी को अपने वश में करने के लिए विविध उपाय अजमाने लगा। उसे लगा कि. द्रौपदी के चित्त के अनुकूल उपचार करने से संभव है कि किसी दिन मेरा मनोरथ सफल हो जाय ।
इस प्रकार विचार कर पद्मोत्तर ने द्रौपदी को एक पृथक् सुन्दर महल में रख दिया । दासियों की समुचित व्यवस्था करदी और उन्हें हिदायत करदी कि द्रौपदी को किसी प्रकार का कष्ट न हो ।