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पू० श्रीरोडोदासजी म.
रहता है। इस भयावने जंगल में कालाजी नामक एक देव स्थान है। वे यहाँ आये और इस निर्जन डरावने देवस्थल के समीप विशाल वृक्ष के नीचे बैठ कर अट्ठमभत्त (तैला) तप के साथ ध्यानस्थ हो गये । उत्कृष्ट ध्यान के बल से वेदना धीरे-धीरे शान्त हो गई । सूर्य के अस्त के साथ साथ वह नेत्र पीड़ा भी सदा के लिये अस्त हो गई । तपस्वीजी के इस हठयोग से इस बीमारी ने तपस्वी से सदा के लिये अपना नाता तोड़ दिया । बीमारी को दूर करने की यह थी तपस्वीजी की रामबाण औषधी। शान्ति के अन दूतः -
एक बार आप आमेट, (मेवाड़) पधारे । उस समय भापके तेले की तपश्चर्या थी। यह क्षेत्र तेरहपंथियों का था । वहाँ उस समय स्थानकवासियों का एक भी घर नहीं था । सायंकाल का समय था । -सूर्यास्त में अभी कुछ समय शेष था। एक तेरहपन्थी गृहस्थ से मकान -की याचना की । यह प्रारम्भ से ही तपस्वीजी के धर्मप्रचार से झुंझ'लाया हुआ तो था ही; उसने तपस्वीजी से बदला लेने का एक अच्छा
अवसर देखा । तत्काल अपने एक खाली मकान में तपस्वीजी को उतार "दिया । प्रतिक्रमण के बाद वह भाई वहाँ पहुँचा और तपस्वीजी से ऊटपटाङ्ग बातें करने लगा । तपस्वीजी उसके इरादे को भोप गये । उसने कठोरभाषा में तपस्वीजी से प्रश्न पूछने शुरू कर दिये। तप-स्वीजी शान्त भाव से और अत्यन्त मधुर भाषा में उसका शास्त्रीय पद्धति से जबाव देते रहे । अब तपस्वीजी ने भी अवसर देखकर उससे कुछ प्रश्न किये । जब उत्तर देने में अपने भापको असमर्थ पाया तो वह तपस्वीजी पर बड़ा कुद्ध हुआ। बड़ी कड़ी भाषा में तपस्वीजी की भसमा करने लगा । यहाँ तक बोल उठा कि अब आपको मेरे मकान में रहने की मेरी आज्ञा नहीं है । आप इसी समय विहार कर यहां से चले जाइये । तपस्वी मी ने शान्त मुद्रा में कहा--भाई ! तुम्हारी इजाजत से ही मैं इस मकान में ठहरा हूँ अगर तुम्हारी इच्छा