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पू. श्रीरोडीदासजी म० है तो मैं चला जाता हूँ । यद्यपि रात्रि में विहार करना जैन मुनि को नहीं कल्पता फिर भी तुम्हारी इच्छा के बिना मै इस मकान में कैसे रह सकता हूँ? यह कह कर तपस्वीजी अन्यत्र जाने के लिये खड़े हो गये । तपस्वीजी को सचमुच ही अन्यत्र जाता देख उपस्थित भाई बदनामी के डर से घबरा गया । वह सोचने लगा-अगर अजैन भाइयों को पता लग जाय कि इसने तपस्वीजी मुनि को मकान से निकाल दिया है तो वे लोग मेरी बड़ी भर्त्सना (निन्दा) करेंगे तथा सगे सम्बन्धियों और साथियों को अगर इस बात का पता लग जाय तो, वे भी मेरा अपमान करेगे । यह सोच कर वह कुछ शान्त पड़ा और बनावटी विनय बताकर बोला-महाराजजी ! आपको केवल रातभर ठहरने की आना है। यह कह कर वह भाई चला गया । तपस्वीजी को उस समय तेले की तपश्चर्या थी। दूसरे दिन वे पारणा किये बिना ही वहाँ से विहार कर दिये। आठ मील विहार कर "लावा सरदार गढ़" में तेले का पारणा किया लेकिन तपस्वीजी ने जरा भी उस भाई पर क्रोध नहीं किया। विष देने वाले के प्रति भी समता भाव___तपस्वीजी की निर्मल महिमा सर्वत्र फैल रही थी। इनके तप, त्याग और परिषह सहन करने की असीम शक्ति को देखकर हजारों लोग उनके उपासक बनते जा रहे थे परन्तु कुछ धर्मद्वेषियों कोयह सहन नहीं हुआ । एक व्यक्ति इनके त्याग और सतत धर्मप्रचार से बौखला उठा । उसने तपस्वीजी की जीवन लीला समाप्त करने का घृणित निश्चय किया । वह कपटी श्रावक वन तपस्वीजी की अनवरत सेवा करने लगा। सामायिक, प्रतिक्रमण त्याग प्रत्याख्यान आदि, धार्मिक कृत्यों: से वह तपस्वीजी का कृपापात्र बन गया।
एक दिन अवसर पाकर उस कपटी श्रावक ने विष मिश्रित आहार तपस्वीजी को बहरा दिया। तपस्वीजी उसे सहर्ष खा गये । आहार