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आ० श्रीधर्मदासजी म०
हुए एक कुम्हार के यहाँ जा पहुँचे । कुम्हार के घर लड़ाई हुई थी इसलिये कुम्हारिण ने भाये हुए मुनिजी को क्रोधवश राख बहरा दी। मुनिजी ने इस प्रथम भिक्षा को आशीर्वाद रूप मान कर उसी राख को तेले के पारणे में छास में मिला कर पी लिया। दूसरे दिन आपने आहार में राख मिलने की वात धर्मसिंहजी महाराज साहब से की तो उत्तर में महाराज श्री ने फरमाया-धर्मदास ! राख की तरह तुम्हारा शिष्य -समुदाय भी चारों दिशा में फैलेगा और चारों ओर तुम्हारे उपदेश का प्रचार होगा । जिस प्रकार राख के वगैर कोई घर नहीं होता उसी प्रकार ऐसा कोई प्राम या नगर नहीं होगा जहाँ आपको मानने वाले भक्त नहीं होंगे । उक्त भविष्यवाणी के अनुसार आपके शिष्यों की खूब वृद्धि हुई। जिन में बाईस बड़े बड़े पण्डित व आचारवान शिष्य हुए जिनके नाम से यह सारा सप्रदाय वाईस संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आचार्य पद
सं. १७२१ की माघ शुक्ला ५ के दिन उज्जैन में आपको आचार्य पद दिया गया । उसके बाद ३८ वर्ष तक आपने सद्धर्म का प्रचार किया। आपने अपने हाथ से ९९ व्यक्तियों को मुनि दीक्षा दी । भारत के अनेक प्रान्तों में विचरण कर आपने शुद्धमत का खूब प्रचार किया। भव्य बलिदान
पूज्य धर्मदासजी महाराज के स्वर्गवास की घटना उनके जीवनकाल से भी अधिक उज्ज्वल और रोमांचक है। अब आपने यह सुना कि धारा नगरी में आपके लुणकरणजी नामक एक व्याधिग्रस्त शिष्य ने अपना जीवन का अन्तिम समय जानकर संथारा कर लिया है । आहार के त्याग से उसको व्याधि मिट गई । अपने आपको तुंदुरुस्त होता देख उसका मन संथारे से विचलित होगया । उसने संथारा तोड़ देने का निश्चय किया। जब पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज को इस बात का पता चला तो उन्होंने तुरंत एक श्रावक के साथ कहला भेजा कि मैं