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पू० श्रीरोडीदासजी-म०
- पूज्य श्रीरोडीदासजी महाराज जैन संस्कृति व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुण की पूजा में विश्वास रखती है । परम श्रद्धेय महातपस्वी श्री रोडीदासजी महाराज भी निरन्तर तत्त्वचिंतन सतत मनन ज्ञानाराधन एवं आत्मगुण के रमण में निमग्न रहते हुए ध्येयसिद्धि करने में ही प्रयत्नशील रहते थे; भले ही आज वे अपने पार्थिव शरीर से हमारे बीच नहीं रहे हों परन्तु उनकी जीवन सुगन्ध भाज भी हमें प्रेरणा दे रही है। पूज्य रोडीदासजी महाराज जैन शासन के पूर्वाचार्यों की रत्नमाला के एक अनमोल रत्न थे।
मेवाड़ की वीरभूमि में देपुर नाम का एक छोटा प्राम है। अप्रसिद्ध ग्राम में जन्म लेकर आपने इसे प्रसिद्ध बना दिया । इसी ग्राम में ओसवाल कुलोत्पन्न डुंगरजी नाम के श्रेष्ठी रहते थे। इनका गोत्र 'लौढा' था । इनकी पत्नी का नाम राजीबाई था । वह अत्यन्त धर्मपरायण थी। उन्हीं की कुक्षि से महातपस्वी रोडीदासजी महाराज ने जन्म लेकर मां की गोद को धन्य किया था । इस अनमोल रत्न को पाकर दम्पती निहाल हो गये थे । बालक रोडीदास के जन्म से माता पिता को अधिक अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने लगी। माता पिता इस लाभ को वालक का ही पुण्य प्रभाव मानते थे फलस्वरूप माता पिता के लिये वह बालक अत्यन्त प्रियपात्र बन गया था ।
माता पिता के प्रेम के साथ ही बालक को उत्तम धार्मिक संस्कार मिलने लगे । माता पिता की छत्रछाया में बालक का शान्तिपूर्वक समय बीतने लगा।
माता पिता के धार्मिक संस्कार और मुनिगणों के उपदेश से बालक रोडीदास का मन संसार के कार्यों से उपरत हो गया। उन्होंने भनेक व्रत प्रत्याख्यान कर लिये । साधुवेष तो नहीं था; किन्तु साधु का त्याग उनमें आ गया था । रात्रि भोजन, सचित्तवनस्पति जल, भादि का त्याग और ब्रह्मचर्य का पालन आदि नियम सदा के लिये ग्रहण कर लिये थे।