Book Title: Agam ke Anmol Ratna
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Lakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 746
________________ आ० श्रीधर्मदासजी म तुरत विहार करके आरहा हूँ। तबतक तुम अपना संथारा चालू रखना। उस मुनि ने पूज्यश्री की आज्ञा मान ली । पूज्यश्री ने शीघ्रता से विहार किया और संध्या होते होते धारा नगरी में पहुँच गये। भूख और प्यास से आकुल व्याकुल संथारा लिके हुए मुनि अन्न और जल के लिए बिलबिला रहे थे। पूज्यश्री ने इस मुनि को प्रतिज्ञा पालन के लिये खूब समझाया किन्तु मुनि के. साहस और सहन-शीलता की शक्ति का बांध टूट चुका था । अतःउन पर उपदेश का कुछ भी असर नहीं पड़ा। पूज्यश्री ने शीघ्रही अपने कंधे पर का बोझ उतारा । संप्रदाय की जिम्मेदारी मूलचंदजी महाराज को दी । समस्त संघ के सम्मुख अपना मंतव्य प्रकट किया और शीघ्र ही धर्म रूपी दीप-शिखा को जाज्वल्यमान बनाये रखने के लिये आपने उस शिष्य के स्थानपरी खुद संथारा करके बैठ गये। शरीर का धर्म तो विनाशशील ही है । आहार पानी के अभाव में क्रमशः शरीर कृश हो गया किन्तु आपके विचार बड़े उत्कृष्ट थे। आपको इस बात की प्रसन्नता थी कि यह देह शासन और धर्म के काम आरहा है। इससे बढ़कर इस नश्वर देह का और क्या उपयोग हो सकता है ? आप अपने अनशन काल में एक एक क्षण को अमूल्य मानकर उसका धर्म चिन्तन में उपयोग करते रहे । अन्ततः आपका यह संथारा ८-९ दिन चला । एक दिन अर्थात् सं०१७५८ की फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा के दिन संध्या को जब वर्षा की झिरमिर झिरमिर बूंदे पड़ रही थीं आपने नश्वर देह को त्याग कर अमरत्व प्राप्त किया । उस समय आपकी आयु ५९ वर्ष की थी । आपने धर्म की रक्षा के लिए जो अपूर्व बलिदान दिया वह आज भी समाज के लिए 'प्रकाशस्तंभ का काम दे रहा है । धन्य है यह विरल विभूति और धन्य है यह भमर बलिदान ।

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