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आ० श्रीधर्मदासजी म०
और माता का नाम जीविबाई था । बालकपन से ही आपका हृदया धार्मिक संस्कारों से पूरित था इसलिए माता पिता ने आपका नाम धर्मदास रक्खा । आप ज्ञाति के भावसार थे । उस समय सरखेज में ७०० घर लोकागच्छ को मानने वाले थे । उस समय सरखेज में लोकागच्छ के यति केशवजी के विद्वान् शिष्य तेजसिंहजी विराजते थे । आपके पास ही धर्मदासजी ने धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया । कालान्तर में आप पोतियाबंध श्रावक कल्याणजी के सम्पर्क में आये। उनके आचार विचार से प्रभावित हो आपने उनका मत स्वीकार कर लिया । दो वर्ष तक आप पोतियाबंद श्रावकपन में रहे ।
एक बार भगवतीसूत्र का वाचन करते समय ऐसा पाठ मिला कि 'भगवान महावीर का शासन २१ हजार वर्ष तक चलेगा ।' आपको इस बात का विश्वास होगया कि आज भी भगवान की आज्ञानुसार शुद्ध संयम का पालन किया जासकता है। तब आप सच्चे संयमी की खोज में निकल पड़े। सर्वप्रथम आप लवजी ऋषि के सम्पर्क में भाये. किन्तु यहाँ भी सात बातों में मतभेद होने से आप उनके पास नहीं रहे । उसके बाद अहमदाबाद में धर्मसिंहजी महाराज के पास आकर उनसे धर्म चर्चा की किन्तु आपको उनसे भी सन्तोष नहीं हुआ । उसके बाद आप कानजी महाराज के पास आये और उनके पास रहकर सूत्रों का अध्ययन करने लगे। कानजी स्वामी के पास दीक्षा लेने का विचार किया किन्तु सत्रह बातों में उनसे मतभेद होगया ।
इन मतभेदों के कारण आप किसी के पास दीक्षा न लेने का विचार कर माता पिता के पास भाये और उनकी आज्ञा प्राप्त कर संवत् १७१६ की आश्विन शुक्ला ११ के दिन अहमदाबाद में बादशाह की वाड़ी में १७ जनों के साथ स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के दिन उन्होंने अट्टम तप किया । चौथे दिन पारणा के लिए घूमते
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