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आगम के अनमोल रत्न
बिछा दिया और उस पर बैठ गये। नारद जी ने महाराज का कुशल क्षेम पूछा ।
परन्तु द्रौपदी देवी ने नारद जी को असंयमी अवती जानकर आदर नहीं किया वह अपने आसन से भी नहीं उठी। नारदजी को द्रौपदी का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। वे सोचने लगे-"द्रौपदी को अपने रूप, यौवन, राज्य एवं पांच पांडवों का अभिमान है इसीलिये यह मेरा आदर नहीं करती । इस रूपगर्विता द्रौपदो के अभिमान को उतारना ही होगा । मुझे अपने अनादर का बदला इससे लेना ही पड़ेगा"।
कुछ समय ठहर कर नारदजी ने पाण्डुराज से जाने की भाज्ञा मांगी । पाण्डुराज ने नारद जी को सम्मान पूर्वक विदा किया । नारदजी ने आकाश मार्ग से प्रस्थान कर दिया। ___घूमते घूमते नारदजी राजा पद्मोत्तर के पास पहुँचे । पद्मोत्तर अमरकंका नगरी का राजा था। उन दिनों अमरकंका धातकीखंड द्वीप की एक प्रसिद्ध नगरी थी। पद्मोत्तर राजा की सातसौ सुन्दर रानियाँ थीं। सुनाम युवराज कुमार था। महाराज को अपने अन्तःपुर पर गर्व था। उसने एक से एक सुन्दर स्त्रियों को अपने अंत पुर में रक्खा था।
पद्मोत्तर ने नारदजी का बड़ा आदर सत्कार किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाया और बोला-ऋषिप्रवर! संसार का कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जो मापने न देखा हो। आपने अनेक ग्राम,नगर और सेठ साहूकारों, राजा महाराजाओं के घर और अन्तःपुर देखे हैं परन्तु मेरे जैसा अनुपम सुन्दरियों से युक्त अन्तःपुर भी कहीं देखा है ? क्या कृपा कर आप उस वस्तु की ओर संकेत करेंगे, जो मेरे यहाँ न हो और किसी दूसरे स्थान पर जो आपको दीख पड़ी हो।
नारद जी ने कहा-पद्मनाभ । तू कूप भण्डूक जैसा है। रा -कैसे?