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आगम के अनमोल रत्न
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श्रीकृष्ण के मनोबल को देख कर देव वडा प्रसन्न हुआ और उसने धातकीखण्ड जाने के लिये मार्ग दे दिया । श्रीकृष्ण और पांचों पाण्डवों के रथ देवता की सहायता से लवण समुद्र पर चलनेलगे। वे थोड़े ही समय में धातकीखंड द्वीप जा पहुँचे । उनका रथ अमरकंका के प्रधान उद्यान में पहुँचा और वहाँ उन्होंने अपना पडाव डाल दिया ।
उसके बाद श्रीकृष्ण ने धातकी खण्ड के राजा पद्मोत्तर को कहलवाया कि यदि आपको अपना जीवन प्रिय हो तो द्रौपदी को सादर ससम्मान वापस करो । यदि आपको अपनी शक्ति पर अभिमान है तो अपनी सेना लेकर युद्ध के लिये तैयार हो जामो । श्रीकृष्ण ने पद्मोत्तर राजा के लिए यह सन्देश अपने दारुक नाम के सारथी के द्वारा पत्र देकर मेजा । सारथी ने श्रीकृष्ण के पत्र को भाले की नोक पर पिरोकर राजा पद्मोत्तर को दिया । पद्मोत्तर राजा ने क्रोध में भर कर पत्र पढ़ने के बाद सारथी से पूछा कि-"कौन कौन आये हैं और साथ में सेना कितनी है ? सारथी ने कहाश्री कृष्ण अकेले हैं और सेना के नाम पर पाँच पाण्डव ही उनके साथ है, जो द्रौपदी के पति हैं। इस बात को सुन कर पद्मोत्तर हसा और वोला-"वे मुझे क्या समझते हैं ? क्या उन्हे पद्मोत्तर की शक्ति का पता नहीं है ? क्या वे नहीं जानते कि पद्मोत्तर एक शक्तिशाली राजा है । उससे भिड़ना यानी आग से खेलना है । संसार की अनेकानेक विजयी सेनाओं को मे पराजित कर चुका हूँ, भला ये छह प्राणी तो किस खेत की मूली हैं ? तुम दूत हो, राजनीति में दूत अवध्य माना गया है इसलिये मै तुम्हें छोड़ देता हूँ। जाओ अपने स्वामी से कह दो कि पद्मोत्तर राजा युद्ध के लिये तैयार है ।' श्रीकृष्ण का सारथी वापस लौटा, और उसने समस्त घटना कह सुनाई।
इधर बहुत शीघ्र ही पद्मोत्तर राजा बड़ी साज सज्जा के साथ अपनी विशाल सेना को टेकर युद्ध के लिये मैदान । आ डटा ।