________________
“६५४
आगम के अनमोल रत्न
श्रीकृष्ण ने पद्मोत्तर को युद्ध के लिए सामने आता देखा तो उन्होंने 'पाण्डवों से कहा-पद्मोत्तर अपनी विशाल सेना के साथ लड़ने के लिये
आ रहा है तो बताओ 'तुम युद्ध करोगे ? पाण्डवों ने कहा कि क्षत्रिय स्वयं युद्ध करता है । वह युद्ध का तमाशा नहीं देखता । श्रीकृष्ण ने कहा-अच्छा जाओ और युद्ध में विजयी बन कर आवो।
___ पाण्डवों का पद्मोत्तर के साथ युद्ध आरंभ हुभा । पद्मोत्तर राजा की विशाल सेना सागर के समान गरजती हुई निरन्तर आगे बढ़ने लगी, यहाँ तक कि पाँच पाण्डव युद्ध करते हुए पीछे हटने लगे । इनके शरीर शत्रु के बाणप्रहारों से क्षत-विक्षत हो गये । सब ओर रक्त की धाराएँ बहने लगीं। पाण्डवों के रथ की पताका भी नष्ट हो गई । आखिर पाण्डव हार कर कृष्ण के पास आये ।।
युद्ध में हारे हुए पाण्डवों को देख कर कृष्ण ने पूछा-पाण्डवो ! युद्ध के पूर्व आपने क्या संकल्प किया। पाण्डवों ने कहा-"आज के इस युद्ध में या तो पाण्डव ही नहीं या पद्मोत्तर ही नहीं" कृष्ण ने यह सुन कर पाण्डवों से कहा- तुम्हारी पराजय का यही रहस्य है । अगर युद्ध के पूर्व यह संकल्प करते-"मैं ही राजा हूँ पद्मोत्तर नहीं" तो तुम अवश्य विजयी हो कर लौटते । अस्तु, अब मै इसी संकल्प -से लड़ता हूँ कि मैं ही राजा हूँ पद्मोत्तर नहीं । तुम मेरा युद्ध देखना । इस प्रकार कह कर कृष्ण युद्ध के मैदान में पहुँच गये।
श्रीकृष्ण ने सिंहनाद के साथ अपना पांचजन्य शंख फूंका । 'धनुष की टंकार की । श्रीकृष्ण के शंख और धनुष की भयंकर और
भीषण ध्वनि को सुन कर पद्मोत्तर राजा की सारी सेना तितर वितर "हो गई। सैनिक अपने रक्षण के लिये इधर उधर भागने लगे। अपनी सेना को 'इधर उधर भागती हुई देख पद्मोत्तर भी भयभीत हो गया
और अपने प्राण को बचाने के लिये अपनी नगरी में घुस गया । उसने -नगर के दरबाजे बन्द करवा दिये और नगर की रक्षा के लिये विशाल सेना तैनात कर दी ।