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आगम के अनमोल रत्न
पाण्डव भी ।नकले । स्थविर का उपदेश सुनकर पाण्डवों को वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने अपने पुत्र पाण्डुसेन को राजगद्दी पर ,अभि-- षिक्त कर स्थविरमुनि के पास दीक्षा ले ली ।
द्रौपदी ने भी सुत्रता नामकी आर्या के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और सामायिकादि ग्यारह अगसूत्रों का अध्ययन किया। अन्त में एक मास' का संथारा करके उसकी मृत्यु हुई और वह ब्रह्मदेव लोक में दस सागरोपम की आयु वाली देवी बनी ।
द्रौपदी ब्रह्मदेवलोक की भायु पूरी कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी । वहाँ स्थविरों से प्रव्रज्या ग्रहण कर सम्पूर्ण कर्म का क्षया कर मोक्ष प्राप्त करेगी। ।
इधर पाण्डवों ने दीक्षा लेकर भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन करने की भावना से सौराष्ट्र की ओर विहार कर दिया । वे उग्रविहार कर हस्तिकल्प नगर पधारे और सहस्राम्र उद्यान में ठहरे । उन दिनों पाचों मुनियों का मासखमण तप चल रहा था । युधिष्ठिर के सिवा चारों मुनि मासखमण पारणे के लिये दिवस के तृतीय प्रहर में नगर की ओर निकले । आहारार्थ घूमते हुए उन्होंने सुना कि "भगवान अरिष्टनेमि गिरनार पर्वत के शिखर पर एक मास का निर्जल उपवास करके पांचसौ साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त हो गये हैं ।" इस समाचार से चारों मुनियों को अत्यन्त दुःख हुआ। उनके मन की •मविलाषा भन में ही रह गई । वे चारों मुनि उद्यान में पधारे और
उन्होंने भगवान के निर्वाण की खबर युधिष्ठिर मुनि से कही । भगवान के निर्वाण के समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने कहा "मुनियों ! हमारे लिये यही श्रेयस्कर है कि भगवान के निर्वाण का समाचार सुनने से पहले प्रहण किये हुए आहार पानी को परठ कर ( त्यागकर) शगुंजय पर्वत पर आरूढ़ हो वहाँ संथारा करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए रहें।" सब मुनियों ने इस विचार को पसन्द किया ।