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आगम के अनमोल रत्न
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जाने दो किन्तु मुझे तुम निःसहाय बनाकर मत जाओ । अगर तुम इस प्रकार निष्ठुर होकर चले गये तो मैं अवश्य ही प्राण त्याग दूंगी।
देवी के हृदयस्पर्शी मीठे वचन सुनकर जिनरक्षित का हृदय पिघल गया और ज्योंही उसने प्यार भरे नेत्रों से उसकी ओर देखा, त्याही शैलक यक्ष ने झट से उसे अपनी पीठ के ऊपर से समुद्र में पटक दिया और देवी ने लाल लाल आखें निकाल कर उसी क्षण तीक्ष्ण तलवार से उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले।
जिनरक्षित का काम तमाम करके वह अट्टहास करती हुई जिनपालित के पास पहुँची और विविध हावभाव से उसे लुभाने लगी। उसने जिनपालित को अपनी ओर आकर्षित करने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु जिनपालित ने उसको ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया और अपने मन को अत्यन्त दृढ़ रखा। देवी अन्त में थक कर चली गई।
जिनपालित निर्विघ्न कुशलता पूर्वक चम्पा पहुँच गया और अपने माता पिता से जा मिला । उसने घर आकर सब बातें अपने कुटुम्वियों को कह सुनाई । जिनपालित ने भगवान महावीर का उपदेश सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की। अंगसूत्रों का अध्ययन किया। अन्तिम समय में मासिक अनशन कर सौधर्मकल्प मे देव वना। वहाँ से वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध बनेगा।
(१) स्कन्धक मुनि श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु नाम का राजा था । उसकी रानी धारिणी थी और स्कंधक नाम का पुत्र था। उसकी बहन का नाम पुरंदरयशा था। वह कुम्भकारक्ड नगर के राजा दंडकी के साथ व्याही गई थी।
दण्डकी राजा का पालक नाम का मंत्री था। एक बार भगवान मुनिसुव्रतस्वामी का उपदेश सुन स्कन्धकुमार श्रावक बना। किसी समय पालक मंत्री श्रावस्ती आया था । स्कंधक कुमार के साथ धार्मिक चर्चा में हार गया । इससे पालक को स्कन्धक के प्रति रोष हो गया ।