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__ आगम के अनमोल रत्न
यह बात शिवराजर्षि तक पहुँची । शिवराजर्षि को अपने ज्ञान में शंका उत्पन्न हो गयी। विचार करते-करते उसका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। उसको भगवान की बात सत्य लगी। वह भगवान के पास आया और धर्मोपदेश सुनकर उसने तापसोचित भण्डोपकरणों को त्याग कर भगवान के पास दीक्षा अंगीकार करली । 'द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं' भगवान की इस प्ररूपणा पर उसे दृढ़ विश्वास हो गया। इसका निरन्तर ध्यान, मनन और चिन्तन करने से तथा उत्कृष्ट तप का भाराधन करने से शिवराजर्षि को केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया और अन्त में उसने मोक्ष पद प्राप्त किया ।
गांगेय अनगार एक वार भगवान वाणिज्यग्राम के दूतिपलास उद्यान में ठहरे हुए थे। उस समय पार्श्वग्राम्परा के साधु गांगेय भगवान के पास आये और थोड़ी दूर खड़े रह कर पूछने लगे
हे भगवन् ! नरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?"
भगवान- गांगेय । नारक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी।
इस प्रकार गांगेय अनगार ने नरक से लगाकर चारों गति के जवों के विषय में पूछा और भगवान ने उसका समाधान किया ।
भगवान से अन्य भी कई प्रकार के प्रश्न गांगेय अनगार ने किये और भगवान ने उनका उत्तर दिया ।
भगवान के प्रत्युत्तरों से गागेय अनगार को विश्वास हो गया कि भगवान सचमुच सर्वज्ञ हैं और सर्वदर्शी है।
इसके बाद गांगेय ने महावीर को त्रिप्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार किया और पार्श्वनाथ की चातुर्यामिक धर्मपरम्परा से निकल कर वे महावीर को पांच महाबतिक परम्परा में प्रविष्ट हुए ।
अनगार गांगेय ने दीर्घकाल पर्यन्त श्रमण धर्म का आराधन कर अन्त में निर्वाण प्राप्त किया ।