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आगम के अनमोल रत्न
कुमार ने इसी चिन्ता में सारी रात व्यतीत की । प्रातः होते ही मेघ महावीर के चरणों में अपने भाव व्यक्त करने पहुँचा । मेघकुमार को आते देख कर भगवान ने कहा- मेघ । रात में तुम्हें बड़ी वेदना रही । सुख से निद्रा नहीं भा सकी । आते-जाते भिक्षुओं के पैरों को ठोकरों से तुम अधीर हो उठे और संयमत्याग का संकल्प किया । मेघकुमार
ने विनयपूर्वक यह सब स्वीकार किया ।
भगवान ने सांत्वना भरे स्वर में कहा - मेघ ! इस भव से पूर्व तीसरे भव में और दूसरे भव में तुम हाथी की योनि में थे । वहाँ एक शशक पर दया करने के लिए तुमने कितना कष्ट उठाया था । आज तुम मनुष्य हो कर भो, उसमें भी भिक्षु हो कर रात्रि के साधारण कष्ट से घबरा गये । मेघ ! सावधान हो कर अपने पूर्वजन्म का
वृत्तान्त सुन
आज से तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में तुम 'सुमेरुप्रभ' नाम के श्वेतवर्ण गजराज थे । तुम्हारा सात हाथ ऊँचा और नौ हाथ लम्बा विशालकाय शरीर था । तुम्हारे छ दाँत थे और तुम अपने विशाल हथिनी समूह के अधिनायक थे । अपने विशाल हाथी समूह के साथ तुम विन्ध्याचल की बीहड़ अटवी में घूमा करते थे ।
एक समय की बात है । जंगल में खूब हवा बहने लगी पहाड़ फटने लगे और बांस आपस में टकराने लगे । इनसे आग की चिनगारियाँ निकलीं और बन में भयंकर दावानल फूट निकला । बड़े बड़े वृक्ष भी आग की लपटों से जल कर नीचे गिरने लगे । आग की लपटे आकाश से बातें करने लगीं । पक्षी चहचहाट करते हुए आकाश में उड़ने लगे और भाग की भयंकर ज्वाला से झुलस कर कर नीचे गिरने लगे । बेचारे चौपायों का तो पूछना ही क्या ? वे अपनी प्राणों की रक्षा के लिए इधर उधर भागते फिरते दृष्टिगोचर होते थे । चारों तरफ आग दीख रही थी मानों यमराज हजार हाथ