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आगम के अनमोल रत्न
अर्जुनमाली जिस दिन से श्रमण बना उसी दिन से उसने बेले 'बेले का पारणा करने का अभिग्रह स्वीकार किया ।
प्रथम बेले के पारने के दिन अर्जुन भनगार ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया । द्वितीय प्रहर में ध्यान किया और तृतीय प्रहर में वे आहार के लिए भगवान की आज्ञा लेकर राजगृह नगर की ओर चले। राजगृह में जाकर ऊँच नीच और मध्यम कुलों में आहार की गवेषणा करने लगे।
अर्जुन अनगार को भिक्षा के लिए आता देख लोग उन्हें आहार दान की बजाय गालियाँ प्रदान करते । उन्हें एकान्त में लेजाकर खूब मार मारते । कोई कहता-इसने मेरे पिता को मार डाला है। कोई कहता इसने मेरी स्त्री की हत्या करदी है तो कोई कहता यह मेरे पुत्र का, भाई का हत्यारा है। कोई उन्हें दिल खोलकर गालियाँ देता
और चांटे लगाता। कोई धक्का मार कर घर से निकाल देता। उनके पात्र में आहार के स्थान में पत्थर, कूड़ा, कर्कट धूल मिलती थी। कदाचित् कोई सहृदय आहार दे भी देता तो दूसरा उसमें मिट्टी डालकर उसे अखाध बना देता। अर्जुन अनगार इस सारी स्थिति को अत्यन्त शान्त भाव से सहन करते । किचित् मात्र भी मन में किसी के प्रति रोष नहीं भाने देते। वे सोचते-यह सब मेरे कर्मों का ही फल है। मेरी क्रूरता से ये सभी पीड़ित थे। मैंने तो इनके परिवार के सदस्यों को जान से मारा है किन्तु ये बेचारे कितने भले हैं जो मुझे जीते जी छोड़ देते हैं । अर्जुन अनगार अपने किये पाप को खूब कोसते ।
इस तरह छ मास तक लगातार लोगों के ताइन, तर्जन को शान्त भाव से सहन किया । जिस भावना से संयम ग्रहण किया था उसी उत्कृष्ट भावना से वे जीवन के अन्तिम क्षण तक संयम की साधना करते रहे । भन्तिम समय में उन्होंने १५ दिन तक अनशन किया । शुद्ध भाव से केवलज्ञान प्राप्त कर वे सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए। ।