________________
६३४
आगम के अनमोल रत्न
ब्राह्मण ने जाकर रानी चन्द्रयशा को खबर दी । वह तत्काल दानशाला में आई और दमयन्ती से प्रेम पूर्वक मिली । न पहिचानने के कारण उसने दमयन्ती से दासी का काम लिया था इसलिए वह पश्चाताप करने लगी और दमयन्ती से अपने अपराध के लिये क्षमा मांगने लगी । रानी चन्द्रयशा दमयन्ती को साथ में लेकर महल में आई । इस बात का पता जब राजा ऋतुपर्ण को लगा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ ।
दमयन्ती ने कुछ दिन वहाँ रहने के बाद कुण्डिनपुर जाने की अपनी इच्छा प्रकट की। राजा ऋतुपर्ण ने ब्राह्मण के साथ दमयन्ती को बड़ी धूमधाम से कुण्डिनपुर की ओर रवाना किया । यह खबर राजा भीम के पास पहुँची । उसे प्रसन्नता हुई । कुछ सामन्तों को उसके सामने भेजा । महलो में पहुँच कर दमयन्ती ने माता पिता को प्रणाम किया । इसके बाद उसने अपनी सारी दुःख कहानी कह सुनाई। किस तरह राजा नल उसे भयंकर वन में अकेली सोती हुई छोड़ गया
और किस तरह से उसे भयंकर जगली जानवरों का सामना करना पड़ा, आदि वृत्तान्त सुनकर राजा और रानी का हृदय कांप उठा । उन्होंने दमयन्ती को सांत्वना दी और कहा-पुत्रि ! तू अब यहाँ शान्ति से रह । नल राजा का शीघ्र पता लगाने के लिये प्रयत्न किया जायगा । दमयन्ती शान्तिपूर्वक वहाँ रहने लगी । राजा भीम ने मल की खोज के लिये चारों दिशाओं में अपने आदमियों को भेजा ॥
महाराजा भीम भी बाहर से आने वाले व्यापारी से पहला प्रश्न नल के सम्बन्ध में पूछता । एक दिन सुसुमारपुर का एक व्यापारी उधर आ निकला । राजा ने उससे भी वही प्रश्न पूछा । व्यापारी ने कहा-राजन् ! मैने नल को तो कहीं देखा नहीं किन्तु हमारे महाराजा दधिपर्ण के यहाँ एक नल रसोइया है । वह वर्ण से काला और शरीर से कूबड़ा है किन्तु है बड़ा साहसी । वह सूर्यपाक रसोई बनाना भी