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आगम के अनमोल रत्न
में लिखा था - ' दमयन्ती ने लम्बे समय तक नल की प्रतीक्षा की किन्तु उनका कहीं पता नहीं लगा । आखिर निराश होकर दमयन्ती ने - स्वयंवर में दूसरा पति चुन लेने का निश्चय किया है । उस अवसर पर आपकी उपस्थिति अनिवार्य है । भतः आप शीघ्र ही स्वयंवर में पधारने की कृपा करें ।" दमयन्ती जैसी रूपवती को पाने की कौन इच्छा नहीं करता किन्तु समय की अल्पता में वहाँ पहुँच पाना भी बहुत कठिन था । केवल एक दिन बीच में था और कुण्डिनपुर बहुत दूर था । दधिपर्ण उदास हो गया ।
इधर जब नल ने दमयन्ती का पुन स्वयंवर सुना तो आश्चर्य चकित हो गया । वह मन में सोचने लगा--- दमयन्ती जैसी आर्य कन्या - का पुनः स्वयंवर कैसे संभव हो सकता है । इसमें अवश्य कोई न - कोई कारण होना चाहिये । दमयन्ती भादर्श पतिव्रता है । वह यह कभी नहीं कर सकती । मुझे स्वयं जाकर उसका पता लगाना चाहिये । वह दधिपूर्ण के पास आया । दधिपर्ण को चिन्तित देखकर कुब्ज राजा से बोला - स्वामी ! आज आप चिन्तित क्यों दिखाई दे रहे हैं ? दधिपर्ण ने हृदय खोलकर सब बात कह दो । कुब्ज ने कहा- स्वामी ! आप - चिन्ता न करें । अश्वविद्या को सहायता से आपको समय के पूर्व ही - कुण्डिनपुर पहुँचा दूँगा । आप चलने को तैयारी करें ।
कुब्ज की बात सुनकर राजा दधिवर्ण बड़ा खुश हुआ । वह - तत्काल तैयार हो गया और सजधज कर एक सुन्दर रथ पर जा बैठा । कुब्ज सारथी' बन गया । राजा के रथ पर बैठते ही अश्व हवा से बातें करने लगे । पवन 'वेग से रथ चलते देख दधिपूर्ण मन ही मन खुश
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हुआ और कुब्ज की प्रशसा करने लगा ।
राजा कुब्ज की अश्वविद्या की प्रशंसा करता हुआ बोला - "कुब्ज ! तुम जिस प्रकार अश्वविद्या में कुशल हो उसी प्रकार मै भी संख्याविद्या में निपुण हूँ | बड़े से बड़े वृक्षों के फलों को निमिष मात्र में गिन देता हूँ । यदि समय होता तो मैं भी चमत्कार दिखलाता ।"