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आगम के अनमोल रत्न
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वह सोचने लगी- “धन्य है यह नारी जिसे पांच पांच पुरुष प्यार करते हैं। मैं कितनी अभागिनी हूँ जिसे पति भी त्याग गया । मेरी इस तपस्या का कुछ फल होतो आगामी भव में मुझे भी पांच पति आप्त हों !"
सुकुमालिका साध्वी इस प्रकार निदान करके गुरुगो के पास आ गई किन्तु भव उसका मन तप में सुख का अनुभव नहीं करता था । वह संयम में शिथिल होगई । शरीर विभूषा में वह अपना समय अधिक बिताने लगी। वह हाथ पैर और शरीर के अवयवों को बार बार धोती थी । जल से भूमि को शुद्ध करके फिर उस पर बैठती थी और स्वाध्याय आदि करती थी ।
सुकुमालिका साध्वी का यह शिथिलाचार अन्य भ्रमणियों को पसन्द नहीं भाया । गोपालिका साध्वी ने भी उसे बहुत समझाया किन्तु उसने अपनी प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तब उसे अपने सघाड़े से बाहर कर दिया । अब सुकुमालिका साध्वी अन्य उपाश्रय में रहने लगी । 'शिथिलाचारिणी सुकुमालिका ने लम्बे समय तक चारित्र का पालन किया । अन्तिम भवस्था में पंद्रह दिन का संधारा करके उसने अपना देह छोड़ा | भर कर वह ईशान देवलोक में देवगणिका वनी । वहाँ - उसे नौ पल्योपम का आयुष्य मिला ।
महासती द्रौपदी
पांचाल देश में कांपिल्यपुर नाम का नगर था । वहाँ द्रुपद नाम के - राजा राज्य करते थे । उसकी पटरानी का नाम चुलनी था । उनके पुत्र का नाम धृष्टद्युम्न था । वह युवराज था । ईशान कल्प का आयु - पूरा होने पर सुकुमालिका देवी का जीव रानी चुलनी की कुक्ष से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ । माता पिता ने उसका नाम द्रौपदी रक्खा 1 पांच धाइयों के संरक्षण में द्रौपदी का शैशव काल व्यतीत हुआ । यथा- समय स्त्री जीवन के योग्य विद्या और विविध कलाएँ उसे सिखलाई