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आगम के अनमोल रत्न
सुकुमालिका पांच धायमाताओं की देख रेख में द्वितीया के चन्द्र की भाँति बढ़ने लगी । उसने क्रमशः शैशव अवस्था को पारकर यौवन में प्रवेश किया । अब माता पिता को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी । उसी नगरी में जिनदत्त नाम का एक धनिक सार्थवाह रहता था उसकी भद्रा नाम की पत्नी और सागर नाम का लड़का था ।
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एक बार जिनदत्त सागरदत्त के घर के पास से जा रहा था । उस समय सुकुमालिका दासियों के साथ छत पर सुवर्ण की गेंद से क्रीड़ा कर रही थी ।
जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका को देखा । वह उसके रूप और यौवन पर आश्चर्यचकित हो गया । उसने अपने सेवकों से पूछायह लड़की कौन है ? इस पर सेवकों ने उत्तर दिया- यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री है और इसका नाम सुकुमालिका है ।
जिनदत्त घर आया । सुन्दर कपड़े व अलंकार पहन कर अपनी मित्र मंडली के साथ सागरदत्त श्रेष्ठी के घर गया । वहाँ उसने अपने पुत्र सागर के लिये सुकुमालिका की मंगनी की ।
सागरदत्त ने जिनदत्त से कहा - सुकुमालिका पुत्री हमारी एकलौती सन्तति है वह हमें अत्यन्त प्रिय है । हम उसे एक क्षण के लिये भी आँखों से ओझल नहीं करना चाहते । हां ! आप का पुत्र सागर यदि हमारा घर जमाई वनना स्वीकार करे तो हम अपनी पुत्री का विवाह सागर के साथ करने के लिये राजी हैं ।
जिनदत्त ने पुत्र की सम्मति से यह बात स्वीकार करली । उसके - बाद शुभ मुहूर्त में जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर को सजाया और बरात के साथ बड़ी धूम धाम से सागरदत्त के घर पहुँचा । वहाँ सागरदत्त ने बरात के साथ सागरपुत्र का स्वागत किया ।
तदनन्तर सागरपुत्र को सुकुमालिका पुत्री के साथ पाट पर विठलाया और चान्दी तथा सोने के कलशों से दोनों को नहलाया गया 1.