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आगम के अनमोल रत्न
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रानी ने इसे अपशकुन समझा और अपने सिपाहियों द्वारा मुनि को पकवा लिया और बारह घंटे तक उन्हें वहाँ रोक रखा। मुनि के चरित्र और तप को देखकर राजा और रानी का क्रोध शान्त होगया । उन्हें सद्बुद्धि आई। मुनि के पास आकर वे अपने अपराध के लिये बार बार क्षमा मांगने लगे । मुनि ने उन्हे धर्मोपदेश दिया जिससे राजा और रानी दोनों ने जैन धर्म स्वीकार किया और वे दोनों शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करते हुए समय विताने लगे। आयुष्य पूर्ण होने पर मन का जीव राजा नल हुआ और रानी वीरमती का जीव तू दमयन्ती हुई । निष्कारण मुनिराज को बारह घंटे तक रोक रखने के कारण इस जन्म में तुम पति पत्नी का बारह वर्ष तक वियोग रहेगा । यह फरमाने बाद केवली भगवान के शेष चार अघात कर्म नष्ट हो गये और वे उसी समय मोक्ष पधार गये ।
केवली भगवान द्वारा अपने पूर्वभव का वृतांत सुनकर दमयन्ती कर्मों की विचित्रता पर बार बार विचार करने लगी । अशुभ कर्म बांधते समय प्राणी खुश होता हैं किन्तु जब उनका अशुभ फल उदय में आता है तब वह महान् दुखी होता है ।
ये सिंहकेशर मुनि दमयन्ती के देवर कुबेर के ही पुत्र थे । इन्होंने यशोभद्र मुनि के समीप अयोध्या में दीक्षा ग्रहण की थी। कर्मों का क्षय करने के लिये सिंहकेशर सुनि वन में जाकर कठोर तप करने लगे । एक बार ध्यान करते समय परिणामों की विशुद्धता के कारण वे क्षपक श्रेणी में चढे और घातिककर्मों का नाश कर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया । उनका 'केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिय देव भी आये थे । अपने ही कुलके मुनि को केवलज्ञान प्राप्त हुआ जान दमयन्ती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मुनि को वन्दन कर वह अपने स्थान लौट आई और वर्षाकाल बीतने पर धनदेव सार्थ के साथ चल दी । धनदेव सार्थ चलते चलते अचलपुर पहुँचा और नगर के बाहर ठहर गया .