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आगम के अनमोल रत्न
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और दिल पर जबरदस्त धक्का लगा किन्तु नल के दृढ़ निश्चय के समक्ष एक सच्ची सहधर्मिणी के रूप में उसे अपने वास्तविक कर्तव्य का भान हो भाया । वह बोली- प्राणनाथ ! अब हमारा इस राज्य पर कोई अधिकार नहीं । हमें यह राज्य छोड़ कर अन्यत्र चला जाना चाहिये ।
नल ने कहा- दमयन्ती | मै भी यही कह रहा हूँ कि अब हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये । तुम अपने पिता के घर चली जाओ और मैं वनवास की ओर प्रस्थान करूँगा । समय पलटने पर मैं तुम्हें फिर से मिलूंगा ।
दमयन्ती बोली- प्राणनाथ। हमारी राह अब दो नहीं हो सकतीं। पति का शरीर जिस तरफ जायगा उसकी छाया भी उसी के पीछे रहेगी । आप के सुख में मैने साथ दिया है तो दुःख में भी आप को सहभागिनी बन कर रहूँगी । आपकी सेवा करना ही मेरा सब से बड़ा सुख है, कर्तव्य है । आप वन में कष्ट सहें और में पीहर भानन्द करूँ यह कैसे होसकता है ? आप विश्वास रखिए कि मैं आपका बोझ नहीं बनूँगी किन्तु सच्ची सहायिका के रूप में आपका साथ दूँगी । आप मुझे अपने से अलग न रखे । विवश होकर नल ने दमयन्ती की बात मानली और साथ में रखने के लिये
राजी हो गया ।
नल और दमयन्ती दोनों ही वन की ओर चल पड़े। स्वामिभक्त प्रजा ने भाँखों में आँसू बहाते हुए अपने प्रिय राजा नल को व रानी दमयन्ती को विदा दी। पुरवासी दूर तक नल को पहुॅचाने आये । अजा न्यायी राजा नल को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी । अपने राजा के प्रति उसका अनुराग अनूठा था और वह उनका वियोग सह न सकी तो रो दी। प्रजा जनों से विदाई लेते हुए नल ने कहा- जो अनुराग आप लोगों का मेरे प्रति रहा है वैसा हो आप "लोग कुबेर के प्रति रखना । उसके अनुशासन का तनिक भी उल्लंघन
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