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आगम के अनमोल रत्न
मत करना । अगर अवसर आया तो मैं आप से पुनः मिलने का प्रयत्न करूँगा। जनता लौट आई और नल तथा दमयन्ती आगे बढ़े।
नल आगे बढ़ रहे थे और दमयन्ती उनके पीछे पीछे चल रही थी। कहां जाना है, कहां बसना है और क्या करना है यह उन्हें स्वयं मालूम नहीं था। कंटकों पत्थरों की राह चलते हुए दुर्गम घाटियों
और भयानक वन्य पशुओं से घिरी भटवी को वे पार करते जारहे थे। धीरे धीरे सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ा और रात्रि का आगमन हुआ। दोनों ने एक वृक्ष के नीचे विश्राम लिया। नल ने वृक्षों के पत्तों को इकट्ठा किया और जमीन पर बिछा दिया । दमयन्ती खूब थकी हई थी वह उस पर लेट गई और थोड़े ही क्षण में गहरी नींद में डूब गई । नल को नींद नहीं आई। वह दमयन्ती के सिरहाने बैठा बैठा सोचने लगा-फूल की शय्या पर सोनेवाली यह राजदुलारी पत्तों की शय्या पर भी उसी चैन से सोरही है । उसने दमयन्ती के पैर सहलाये । पत्थरों व फाटों से उसके पैर घायल थे। मुख की तरफ देखा तो कोमल मुख मुाया हुआ था। वह फिर विचारों में डूब गया, दमयंती स्त्री है, स्वभाव से ही कोमल, फिर राजपुत्री और राजरानी । यह मार्ग के कष्टों को सह न सकेगी। दमयन्ती एक आदर्श पतिव्रता है। पति के सुख दुःख में अपना सुख दुःख मानने वाली भारतीय ललना है। यह मुझे इस स्थिति में हरगिज छोड़ने के लिये राजी नहीं होगी किन्तु इसके सुख के लिये इसे छोड़ देना ही उचित रहेगा । यदि मैं इसे छोड़ चला जाऊँ तो इसे विवश होकर पीहर जाना पड़ेगा। यही सोच नल खड़े होगये और अपनी सोई हुई प्रियतमा दमयन्ती को छोड़ चल पड़े। कुछ दूर जाने पर नल के पैर फिर रुक गये मन में सोचने लगे-दमयंती अकेली है, भूखी प्यासी है और यह भयानक हिंस्र पशुओं से भरा जंगल ! मैं इस स्थिति में दमयन्ती को अकेला छोड़ उसके साथ विश्वासघात तो नहीं कर रहा हूँ ? नल लौट आया और दमयंती के सिरहाने बैठ गया। दूसरे ही क्षण नल