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आगम के अनमोल रत्न
माता पिता की इच्छा रखने के लिए अतिमुक्तक एक दिन लिए गद्दी पर बैठा और उसके बाद बड़े धूमधाम से भगवान के पास जा कर दीक्षा ग्रहण की। अतिमुक्तक ८ वर्ष की अवस्था में मुनि
बन गया ।
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एक बार खूब वृष्टि हो रही थी । बढीशंका निवारण के लिए अन्य मुनियों के साथ वृष्टि के थम जाने पर बगल में रजोहरण और हाथ में पात्र की झोली लेकर अतिमुक्तक मुनि निकला । जाते हुए उसने पानी देखा। उसने मिट्टी से पाल बान्धी और अपने काष्ट पात्र को डोंगी की तरह चलाना आरंभ किया और कहने लगा-यह मेरी नाव है । इस नाव के साथ में भी तिर रहा हूँ । इस प्रकार खेल खेलने लगा । उसे इस प्रकार खेलते देख स्थविर उसकी इस बालक्रीडा पर हँसने लगे भगवान के पास आये और भगवान से पूछने लगे- भगवन् ! अतिमुतक कितने भवों के बाद सिद्ध होगा और सब दुःखों का अन्त करेगा ?
इस पर भगवान ने कहा- मेरा शिष्य अतिमुक्तक इसी भव में सिद्ध होगा । तुम लोग उसकी निन्दा मत करो और उस पर मत हँसो । कुमार अतिमुक्तक इसी भव में सब दुःखों का नाश करने वाला है और इस बार शरीर त्यागने के बाद पुनः शरीर धारण नहीं करेगा ।
भगवान की बात सुन कर सब स्थविर अतिमुक्तक मुनि की सारसंभाल रखने लगे और उनकी सेवा करने लगे । अपने साधु जीवन में अतिमुक्तक ने सामायिक आदि अंगसूत्रों का अध्ययन किया । कई वर्ष तक साधुजीवन में व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने गुणरत्न संवत्सर आदि कठोर तप किया । अन्त समय में मासिक संलेखना करके'विपुलगिरि पर सिद्ध पद प्राप्त किया ।
नंदिषेण
मगध देश में नन्दि नामक ग्राम था । यहाँ नंदिषेण नाम का एक