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आगम के अनमोल रत्न
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उसके बाद कृष्णवासुदेव ने अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें पद्मावती देवी के दीक्षा महोत्सन की तैयारी करने को कहा। कृष्ण वासुदेव की आज्ञा पर सेवकों ने दीक्षा महोत्सव की सम्पूर्ण तैयारी की और इसकी सूचना कृष्णवासुदेव को दी।
इसके बाद कृष्णवासुदेव ने पद्मावती को पाट पर बैठाकर एकसौ आठ स्वर्णकलशों से स्नान करवाया और दीक्षा का अभिषेक किया। उसे सम्पूर्ण वस्त्र अलंकारों से अलंकृत करके हजार पुरुषों द्वारा उठाई जानेवाली पालखी पर बैठाया और द्वारिका नगरी के बीचोवीच होते हुए रैवत पर्वत के समीपस्थ सहस्राम्र उद्यान में उसे उत्सव पूर्वक ले. आये। वहाँ आने के बाद पद्मावती पालखी से नीचे उतरी। कृष्ण वासुदेव पद्मावती को आगे करके जहाँ भगवान अरिष्टनेमि थे वहाँ आये और भगवान को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण करके वन्दन और नमस्कार किया और बोले-हे भगवन् ! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है। यह मेरे लिये इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनाम है और मन के अनुकूल कार्य करने वाली है। मेरे जीवन में श्वासो.. च्छ्वास के समान प्रिय है एवं मेरे हृदय को आनन्दित करने वाली है। अत: हे भगवन् ! ऐसी पदमावती देवी को मैं आपको शिष्या रूप भिक्षा देता हूँ। आप कृपाकर इस शिष्या रूप भिक्षा को स्वीकार. करे । भगवान ने कृष्णवासुदेव की प्रार्थना को स्वीकार किया।
इसके बाद पद्मावती रानी ने ईशान दिशा की ओर जाकर अपने हाथों से अपने शरीर पर के सभी आभूषण उतार दिये और स्वयमेव अपने केशों का पंचमुष्टक ढुंचन करके भगवान के पास आई और वन्दन कर बोली-भगवन् ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुःख रूपी अग्नि से प्रज्वलित हो रहा है। अतः इस दु.ख समूह से छुटकारा पाने के लिये मै आपके पास दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूँ। अतः भाप कृपा करके मुझे प्रवजित कीजिए।