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आगम के अनमोल रत्न
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मुनि कृतपुण्य
एक गरीब गोवालिन के पुत्र ने उत्सव के अवसर पर अन्य बालकों को खीर खाते हुए देखा और इसकी भी इच्छा खीर खाने की हुई । बालक की इच्छा देख मां ने अड़ोसी पड़ोसियों से चीज इकट्ठी कर खीर बनाई | बच्चे ने मासोपवासी मुनि को अत्यन्त भक्ति के साथ प्रथम बार परोसी गई खीर दे दी । जिससे इसने देव आयुष्य का बन्धन किया । मां ने पुनः बच्चे को खीर परोस दी । बालकने इतनी अधिक खा ली कि वह उसी रात्रि में विशुचिका रोग से मर गया । भर कर देव बना ।
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वहाँ से आयुष्य पूरा कर राजगृह के प्रधान श्रेष्ठी धनेश्वर की पत्नी सुभद्रा के उदर से इसने जन्म लिया | बालक का नाम कृतपुण्य रखा गया । इसने कलाचार्य से कला पढ़ीं। कृतपुण्य युवा हुआ । इसका श्रीद नामक श्रेष्ठी की धन्या नामक योग्य कन्या से विवाह हुआ ! विशेष, कुशलता प्राप्त करने के लिये इसे एक गणिका के घर रक्खा गया । इसने बारह वर्ष तक गणिका के घर रह कर अपने सारे घर को निर्धन बना दिया। इसके माता पिता मर गये । स्त्री के पास जो कुछ भी गहने आदि के रूप में धन बचा था वह भी उससे
छीन कर वेश्या को दे दिया । अन्त में
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वेश्या ने कृतपुण्य को निर्धन जान उसे घर से निकाल दिया । कृतपुण्य गणिका के घर
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से निकल अपने घर पहुँचा और अपने घर को निर्धन देखकर. बहुत दुःखी हुआ । कुछ काल के बाद कृतपुण्य धन कमाने के लिए एक
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सार्थवाह' के साथ व्यापार करने के लिए रवाना हुआ | चलते चलते
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वह एक शहर के पास रात्रि में किसी देव मन्दिर में खाट बिछा कर सो
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गया ।
उसी गाँव की एक वृद्धा का पुत्र अपनी चार पत्नियों को छोड़ कमाने के लिए परदेश गया था । वहाँ से वापस आते समय समुद्र
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