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आगम के अनमोल रत्न
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ब्राह्मण रहता था। इसकी माता का नाम वारुणि था । जव यह गर्भ में था तब ही इसके पिता की मृत्यु हो गई थी । यह अपने मामा यहाँ के ही बड़ा हुआ । मामा इसका विवाह अपनी पुत्री के साथ करना चाहता था । पुत्रियो ने नंदिषेण से विवाह करने से साफ इनकार कर दिया । - मातुल दुहिताओं के इस अपमान से दुःखी हो कर नदिषेण ने नंदिवर्द्धनं नाम के आचार्य के पास प्रवज्या ग्रहण की । इसने यावज्जीवन तक षष्ठ भक्त तप करने का और ग्लान रोगी साधु की परिचर्या करने का अभिग्रह ग्रहण किया । इसकी परिचर्या की प्रशंसा सौधर्मेन्द्र ने 'देव सभा में की। एक देव को इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुआ । उसने नंदिषेण की परीक्षा करने का विचार किया । उसने दो श्रमणो का रूप बनाया । एक अतिसार रोगो का और दूसरा ग्लान का । अतिसार रोगी श्रमण एक वृक्ष के नीचे पड़ा रहा। दूसरा ग्लान श्रमण जहाँ नंदिषेण था वहीं भाया और बोला- नंदिषेण ! एक अतिसार रोग से पीड़ित साधु वृक्ष के नीचे पढ़ा है । उस समय नंदिषेण षष्ठ के पारणे की तैयारी में था । ग्लान साधु की यह बात सुनते ही वह अतिसार रोग से पीड़ित साधु को कंधे पर चढ़ा कर ले भाया । मार्ग में रोगी साधु ने उसके सारे अग मलमूत्र से भर दिये । कहीं पैर ऊँचा नीचा पड़ता तो यह मुट्ठी से प्रहार करता था और गाली -गलौज भी देता था । मुनि ने समभाव पूर्वक सब सहन किया। नंदिषेण साधु को उपाश्रयं में रख पानी लाने के लिये निकला । देव ने सभी 'घर अनैषणीय कर दिये । दिन भर भूखे प्यासे घूमने पर भी पानी नहीं मिल सका । जब वापस लौट आया तो रोगी साधु ने उसका घोर अपमान किया । इतना होने पर भी नन्दिषेण जरा भी क्रुद्ध नहीं हुआ | देव नंदिषेण की इस परिचर्या पर प्रसन्न हुआ और खूब प्रशंसा कर चला गया । नंदिषेण शुद्ध संयम का पालन कर देवलोक गया और वहाँ से चवकर वसुदेव हो गया । ये वसुदेव कृष्ण वासुदेव के पिता थे ।