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आगम के अनमोल रत्न
था तब आपने मुझे देने से इनकार कर दिया । अतः 'जो खायगा वह शौच जायगा' इस उक्ति के अनुसार आप अकेले ही प्रसन्नता पूर्वक जा सकते हैं। मैं तुम्हारे साथ नहीं माऊँगा। .
सेठ लाचार थे। उनके पैर विजय के साथ काष्ठ के खोड़े में चन्धे थे । वे अकेले नहीं जा सकते थे। अतः कुछ समय तक चुप रहे। पर शरीर में शौच बाधा बड़ती गई वे उसे सह नहीं सके अन्त में लाचार होकर पुनः विजय से साथ में आने की प्रार्थना करने लगे। धन्य को बहुत अनुनय विनय करता देख विजय बोला-श्रेष्ठी ! मैं एक ही शर्त पर तुम्हारे साथ आ सकता हूँ वह यह कि कल जो आपके 'लिये भोजन आयगा उसमें से मुझे थोड़ा खाने के लिये देना पड़ेगा। क्या यह शर्त आपको मंजूर है ? विवश होकर धन्य अपने भोजन में से कुछ हिस्सा विजय को देने के लिये राजी हो गया । भव विजय को प्रतिदिन भोजन मिलने लगा।
पंथक ने सेठ को विजय चोर को भोजन देते हुए देख लिया । सेठ के इस व्यवहार से दास कुढ़ गया । उसने घर पहुँच कर भद्रा से सारी बात कह दी । अपने पति के इस व्यवहार से भद्रा अत्यन्त क्रुद्ध हो गई और वह मन ही मन में अलने लगी । पति के प्रति जो उसके मन में प्रेम था वह कम हो गया ।
कुछ काल के बाद अपने सम्बन्धियों की सिफारिश से तथा अपने धन के जोर से धन्य सार्थवाह जेल से छूट गया । जेल से छूट कर वह नाई की दुकान पर गया और वहाँ हजामत बनवाई, पुष्करणी में स्नान किया, गृहदेवताओं की पूजा की और उसके बाद वह अपने घर की ओर चला । नगर के सेठ, सार्थवाह आदि ने धन्य का बड़ा स्वागत किया और कुशल समाचार पूछे । धन्य अपने घर पहुंचा। धन्य का घर के सब लोगों ने बड़ा स्वागत किया । माता, पिता, भाई आदि परिवार धन्य को देखकर आनन्दातिरेक से गद्गद हो गले मिले और खूब रुदन किया ।