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आगम के अनमोल रत्न
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लगे तो एक शशक को उस स्थान में बैठा हुआ देखा । उस समय तुम्हारे मन में विचार आया कि मेरी ही तरह इस खरगोश के भी प्राण हैं। इसे भी अपना प्राण उतना ही प्रिय है जितना मुझे अपने प्राण प्यारे हैं। किसे मरना अच्छा लगता है। इस प्रकार तुम्हारे मन में दया जाग उठी तुमने खरगोश की रक्षा के हेतु अपना ऊँचा किया, हुआ पैर ज्यों का त्यो ऊँचा उठाये रखा।
हे मेघ ! तब उस प्राणानुकम्पा से, सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परित किया और मनुष्य आयु का बन्ध किया । · जंगल का वह दावानल ढाई दिन तक एकसा जलता रहा। अब दावानल शात हुआ तो सभी प्राणी इधर उधर विखर गये। भूख से पीड़ित हाथी समुदाय भी दूर दूर जंगलों में घास चारे की फिक में तत्काल ही रवाना हो गया। वह खरगोश भी खुश होता हुआ किलकारियाँ मारता हुआ दौड गया। तुमने चलने के लिये अपना पैर लम्बा किया किन्तु तुम्हारा पैर अकड़ गया जिससे तुम एकदम पृथ्वी पर गिर पड़े । तुम्हारी वजनदार काया चूर चूर हो गई। तुम्हारी देख भाल करने वाला वहाँ कोई नहीं था। भूख और प्यास से तड़पते हुए तीन दिन तक तुम वहीं पड़े रहे । अन्त में तुम वहीं सौ वर्ष की अवस्था में मर गये और यहाँ तुम धारिणी रानी के गर्भ में आये।
हे मेघ ! तिर्यञ्च के भव में प्राणभूत जीव और सत्त्वों पर अनुकम्पा कर तुमने पहले कभी नहीं प्राप्त हुए सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति की। हे मेघ । अब तुम विशाल कुल में उत्पन्न होकर गृहस्थावास को छोड़ कर साधु वने हो तो क्या साधुओं के पादस्पर्श से होनेवाले जरा से कष्ट से घबड़ाना तुम्हें उचित है।
भगवान के मुख से उपरोक वचन सुनकर मेघकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने हाथी के दोनों भवों को देखा। भगवान के सत्य वचनों पर उसकी श्रद्धा बढ़ गई। उसकी सोई हुई आत्मा जागृत हो गई। वह उसी क्षण भगवान को नमस्कार कर बोला-भगवन् ! आज से इन दो आँखों के सिवाय यह समस्त