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आगम के अनमोल रत्न
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ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके एकमास की संलेखना एवं साठ भक्त का अनशन करके वह देव. लोक में देव रूप से उत्पन्न हुआ। वह देव उस देवलोक से भायु का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह में सिद्धि प्राप्त करेगा ।
उपनय-चंपा नगरी के समान यह मनुष्यगति है । धन्य सार्थवाह के समान परम कारुणिक तीर्थङ्कर भगवान हैं। घोषणा के समान प्रभु की देशना है । अहिच्छना नगरी के समान मुक्ति है । अन्य व्यापारियों के समान मुमुक्षुजीव है । इन्द्रियों के विषय भोग नंदी फल हैं जो तात्कालिक सुख प्रदान करते हैं परन्तु परिणाम उनका मृत्यु है। विषय भोगों के सेवन से पुन: पुन जन्म मरण करना पड़ता है। जैसे नंदी फलों से दूर रहने से सार्थ के लोग सकुशल अहिच्छत्रा नगरी में पहुँचे उसी प्रकार विषयों से दूर रहने वाले मुमुक्षु मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
धन्यसार्थवाह राजगृह नाम का नगर था । वहाँ श्रेणिक नाम के राजा राज्य करते थे। इस नगर के ईशान कोण में गुणशीलक नामक उद्यान था । वह अत्यन्त रमणीय था । इस उद्यान से कुछ दूरी पर एक गिरा हुमा जीर्ण उद्यान था। उस उद्यान के देवकुल विनष्ट हो चुके थे। द्वारों के तोरण और गृह भन्न हो गये थे। यह नाना प्रकार के गुच्छों गुल्मों (बाँस आदि की झाड़ियाँ), अशोक, आम्र भादि वृक्षों से तथा विभिन्न व लताओं से व्याप्त था। वह जंगली जानवरों का निवास बन गया था। इस उद्यान के बीच एक पड़ा हुआ कुओं था । इस कुएँ के पास ही एक बड़ा मालुकाकच्छ था । वह सघन था, वृक्षों गुल्मों, लताओं और ठूठों से व्याप्त था। उसमें अनेक हिंसक पशु रहते ये जिसके कारण उसमें जाने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी।