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आगम के अनमोल रत्न
ज्वर से पीड़ित होकर उसी तालाब में एक सौ बीस वर्ष की आयु में मर गये । मृत्यु के बाद पुन. विध्याचल की अटवी में तुमने हाथी के रूप में जन्म प्रहण किया । तुम्हारे चार दांत थे और वनचरों ने तुम्हारा नाम मेरुप्रभ रखा । युवावस्था में तुम अपने यूथपति की मृत्यु के बाद यूथपति बने । तुमने एक बार जंगल में दावानल देखा और जातिस्मरण ज्ञान हुआ । पूर्वजन्म के दावानल के अनुभव से तुमने दावानल की ज्वाला से अपने यूथ को बचाने के लिये एक विशाल मण्डल बनाने का निश्चय किया । तदनुसार तुमने वन में सुन्दर नदी नावे और सरोवर वाले स्थल को ढूँढ निकाला | अपने सात सौ साथियों के साथ एक योजन का विशाल मैदान बनाया । वहाँ के पेड़ों को सूँड़ से उखाड़ कर दूर ले जाकर फेक दिया । सूखी घास तो क्या हरी घास की पत्ती को भी रहने नहीं दिया । अपने पैरों से रौंदकर जमीन को अत्यन्त कठिन बना दिया । अब तुम अपने परिवार के साथ वनश्री का आनन्द लूटते हुए आनन्द से दिन काटने लगे ।
कुछ समय बीतने के बाद पुनः जंगल में दावानल फूट निकला । सर्वत्र भय का वातावरण फैल गया । जगह जगह से हाथी आकर उस -मण्डल में आश्रय देने लगे। तुम भी अपने यूथ के साथ वहाँ आ पहुँचे । सारा जगल आग की ज्वाला से भभक रहा था । उस समय तुम्हारा मण्डल एकदम निरापद था । वहाँ अग्नि नहीं आ सकती थी । ऐसा सुरक्षित स्थान देखकर शेर, बाघ, रोछ, शशक, हिरण आदि जान-वर भी वहाँ आश्रय लेने आ पहुँचे । सन्मुख मौत खड़ी देखकर जातिगत वैर भाव भूल गये और सारा ही मैदान प्राणियों से खचाखच भर गया । जिसको जहाँ स्थान मिला वह वहाँ बैठ गया । कुछ समय के बाद अपने शरीर को खुजलाने के लिये तुमने अपना पैर उठाया इतने में दूसरे बलवान प्राणियों द्वारा धवेला हुआ एक खरगोश उस जगह आ पहुँचा । शरीर को खुजलाकर जब तुम अपना पैर नीचे रखने
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