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आगम के अनमोल रत्न -सत्व की रक्षा करने के लिए सतत सावधान रहना चाहिये । मेघकुमार भगवान की शिक्षा को शिरोधार्य कर संयमी बन गया।
मेषकुमार के प्रत्रजित होते ही माता धारिणी ने गद् गद् स्वर में कहा-पुत्र ! तुम अव भागार से अनगार बन गये हो । संयम साधना में प्रयत्न करना, पराक्रम करना, मनोवृतियों का निरोध करना, राग और द्वेष पर विजय पाना और शुक्ल ध्यान के बल से सिद्ध, बुद्ध और मुफ बनना । मेरी तरह किसी अन्य मातृ हृदय के रोदन का निमत्त मत बनना ।
मेघकुमार अव आत्मसाधक भिक्षु बन गया और अन्य मुनियों की तरह भगवान के आदेशों का परिपालन करने को तत्पर हो गया ।
सयमी जीवन की प्रथम रात्रि थी । सव साधुओं ने क्रमानुसार अपने विस्तर विछाए । मेघकुमारमुनि लघु होने के कारण इनका विस्तर दरवाजे के पास भाया । सभी साधु रात को लघुशंका आदि कारणों के लिए उसी दरवाजे से आते जाते थे। उनकी चरण रज से और ठोकरों से सारा विस्तर धूल से भर गया । आने जाने की खटखट से, मुनियों की ठोकरों से और धूल तथा रेती भरे विस्तर में मेघमुनि एक क्षण भी नहीं सो सके । सारी रात विस्तर पर वैठ कर व्यतीत की । वह सोचने लगा-जब मै घर में रहता था तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे। जीवादि पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को एवं कारणों के व्याकरणों को कहते थे किन्तु जब से मैने दीक्षा अंगीकार की है तब से ये लोग मेरा आदर करना तो दूर रहा किन्तु बात तक नहीं करते । ये श्रमण अपने कार्य के लिए आते आते मेरे सस्तारक को लांघते हैं, ठोकरें मारते हैं
और मेरे विस्तर को धूल से भर देते हैं । इनकी इस अनादर वृत्ति से मै इतनी लम्बी रात में आंख भी नहीं मींच सका । अतः कल प्रातः भगवान की आज्ञा प्राप्त कर में पुनः गृहवास में चला जाऊँगा । मेघ