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आगम के अनमोल रत्न
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पोग्गल अनगार काशी देश में मालभिया नाम की नगरी थी। उस नगरी के वाहर शखवन नामक उद्यान था । भगवान महावीर एक वार शंख-. वन उद्यान में पधारे ।
शंखवन के पास पोग्गल नामक एक परिवाजक रहता था । वह ऋग्वेदादि वैदिक धर्मशास्त्रों का ज्ञाता और प्रसिद्ध तपस्वी था । निरन्तर षष्टतप के साथ सूर्य के सन्मुख ऊर्ध्वबाहु खड़ा होकर आतापना किया करता था । इस कठिन तप, तीन आतापना और स्वभाव. की भद्रता के कारण पोग्गल को विभंगज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे वह ब्रह्मदेवलोक तक के देवों की गति स्थिति को प्रत्यक्ष देखने लगा।
इस प्रत्यक्षज्ञान की प्राप्ति से वह आलभिया के चौक बाजारों में अपने ज्ञान का प्रचार करने लगा । वह कहता कि देवों की कम से कम स्थिति दस हजार वर्ष की और अधिक से अधिक स्थिति दस सागरोपम की है। बाजारों में पोग्गल परिव्राजक के ज्ञान की चर्चा होने लगी। कुछ लोग उनके ज्ञान की प्रशंसा करते थे और कुछ लोग उसमें शंका उठाते थे। उस समय गौतम स्वामी ने भिक्षाचर्या के समय पोग्गल परिव्राजक के ज्ञान की चर्चा सुनी । वे भगवान के पास भाये और पोग्गल परिव्राजक के ज्ञान की चर्चा की। उत्तर में . भगवार ने बताया-"पोग्गल परिव्राजक का सिद्धान्त मिथ्या है। कारण देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की है। उसके उपरान्त देव और देवलोक का अभाव है।"
भगवान महावीर का यह कथन पोग्गल के कानों तक पहुँचा । वह अपने ज्ञान के विषय में शंकित हो उठा। महावीर सर्वज है.. तीर्थङ्कर है, महातपस्वी है, यह तो पोग्गल पहले ही सुन चुका था। अब उसे अपने ज्ञान पर विश्वास नहीं रहा, वह ज्यों-ज्यों उहापोह करता था त्यों-त्यों उसका विभंगज्ञान लुप्त होता जाता था । ।