________________
• ५४८
आगम के अनमोल रत्न
सुभद्रा का यह वाक्-बाण धन्य के ठीक मर्मस्थान को बींधर गया । वह तत्काल खड़ा हो गया और बोला-सुभद्रे ] आज से ही मैने तुम सब का परित्याग कर दिया है और मैने भी दीक्षा लेने का . विचार कर लिया है। यह बात पति के मुख से सुनकर सुभद्रा चौंक उठी। उसे यह मजाक भारी पड़ गया । वह अत्यन्त दु.खी हृदय से कहने लगी-"नाथ } मैने तो मजाक में कहा था। आप मुझे क्षमा कीजिये ।"
पर धन्य अपने वचन पर दृढ रहा। वह शालिभद्र के पास आया और बोला-"शालिभद्र ! यह क्या कायरों की तरह त्याग कर रहा है ? अगर त्याग ही करना है तो क्यों नहीं वीरों की तरह किया जाय ।" मै आज ही दीक्षा लेने जा रहा हूँ। अपने बहनोई के इस आह्वान पर शालिभद्र ने अपनी समस्त ऋद्धि का परित्याग कर धन्य के साथ भगवान महावीर के समीप दीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर दोनों ने कठोर तप किये और अन्त में नालन्दा के पास वैभारगिरि के समीप एक शिला पर पादोपगमन संथारा कर देह त्याग दिया और मरकर धन्य अनगार ने मोक्ष प्राप्त किया और शालिभद्र भनुत्तरदेव विमान में देव बने । भद्रा ने भी दीक्षा ग्रहण कर भात्म कल्याण किया ।
सुबाहुकुमार हस्तीशीर्ष नाम का एक बड़ा समृद्धिपूर्ण नगर था । वहाँ भदीनशत्रु नाम के परम प्रतापी राजा राज्य करते थे। वे प्रजा हितैषी और न्यायशील थे । उनके शासन में प्रजा बड़ी सुखी थी। ।
“महाराज अदीन शत्रु के धारिणी आदि एक हजार रानियां थीं। जिनमें धारिणी; प्रधान महाराना थी । धारिणीदेवी सौदर्य की, जीती जागती मूर्ति थी-। एक बार धारिणीदेवी , रात्रि के समय जबकि अपने - राजोचित. शयन भवन में सुखशय्या पर सुखपूर्वक , सो रही थी तब अर्द्धजागृत अवस्था में उसने एक सिंह,को मुख में प्रवेश करते.