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आगम के अनमोल रत्न
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भगवान की देशना का सुवाहुकुमार पर बहुत असर पड़ा । वह उनके सन्मुख खड़े होकर नम्र भाव से बोला-भगवन् ! भाप के पास अनेकों राजा महाराजा धनाढ्य सेठ साहूकार अपने विशाल वैभव का परित्याग कर प्रबजित होते हैं परन्तु मुझ में सम्पूर्ण चारित्र ग्रहण करने की शक्ति नहीं है, इसलिये मुझे तो गृहस्थोचित देशविरति धर्म के पालन का ही नियम कराने की कृपा करे। भगवान ने उत्तर में कहाराजकुमार ! जैसा सुख हो वैसा करो । तदन्तर सुवाहुकुमार ने पांच अनुव्रत और सात शिक्षा व्रतों के पालन का नियम करते हुए देशविरति धर्म को अङ्गीकार किया और भगवान को यथाविधि वन्दन कर अपने रथ पर सवार होकर अपने स्थान को वापिस चला आया ।
सुवाहुकुमार की रूपलावण्यपूर्ण भद्र और मनोहर आकृति तथा सौम्य स्वभाव एवं मृदुवाणी भादि को देखकर गौतमस्वामी विचारने लगे कि सुबाहुकुमार ने ऐसा कौन सा पुण्य किया है जिसके प्रभाव से इसको इस तरह की लोकोत्तर मानवी ऋद्धि संप्राप्त हुई है । इन विचारों से प्रेरित होकर वे भगवान के पास भाये और विनय पूर्वक पूछने लगे-~भगवन् । सुबाहुकुमार इष्ट है, इधरूप वाला है, कान्त है, कान्त रूपवाला है। प्रिय है, प्रियरूप वाला है । सौम्य है, सौम्यरूप वाला है । भगवन् ! सुबाहुकुमार को यह मनुष्य ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? यह पूर्वभव में कौन था, उसका नाम क्या था? गोत्र क्या था ? इसने क्या दान दिया ? कौनसा भोजन खाया था ? किस वीतरागी श्रमण या ब्राह्मण की वाणी सुनकर इसके जीवन का निर्माण हुआ था ?
गौतम की उपरोक्त शंका का समाधान करते हुए भगवान ने कहा-गौतम ! सुन, मैं तुझे सुबाहुकुमार के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाता हूँ--
हस्तिनापुर नाम का एक नगर था। वह धन धान्य से समृद्ध था। वहाँ सुमुख नाम का एक धनाढ्य गाथापति रहता था। वह नगर का