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आगम के अनमोल रत्न
मुखिया था । एक वार धर्मघोष नाम के जाति सम्पन्न आचार्य अपने पांच सौ शिष्यों के साथ नगर के बाहर सहस्राम्र उद्यान में पधारे। धर्मघोष आचार्य के एक शिष्य का नाम 'सुदत्त भनगार' था ।
सुदत्त अनगार जितेन्द्रिय और तपस्वी थे । तपोमय जीवन से उन्हें तेजोलेश्या प्राप्त थी। वे मासखमन की तपश्चर्या करते थे अर्थात् वे महिने -मैं केवल एक दिन ही आहार करते थे ।
एक समय उनके मासखमन के पारणे का दिन था। उन्होंने उस दिन . प्रथम प्रहर में स्वाध्याय क्यिा दूसरे प्रहर में ध्यान किया और तीसरे प्रहर में वस्त्र पत्रादि तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वे अपने धर्माचार्य की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने सविधि सविनय वन्दन कर पारणे के निमित्त भिक्षार्थ जाने की आज्ञा मांगी। गुरु की ओर से आज्ञा मिल जाने के वाद वे नगर में आहार के लिये चले।
नगर में वे ऊँच नीच और मध्यम कुलों में आहार की गवेषणा करने लगे। उन्होंने नगर के बीच एक विशाल भवन देखा और सहज भाव से आहार के लिये उसमें प्रवेश किया । वह विशाल भवन सुमुख गृहपति का था ।
सुदत्त अनगार को घर में प्रवेश करते देख सुमुख गृहपति बड़ा प्रसन्न हुभा । उसका मन विकसित सूर्य कमल की भाति हर्ष के मारे खिल रठा। वह अपने आसन से उठकर, नंगे पाव सुदत्त भनगार के स्वागत के लिए सात आठ कदम आगे गया और उसने तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक प्रदक्षिणा करके मुनि को भक्ति भाव से वन्दन नमस्कार किया एवं तदन्तर सुदत्त अनगार का स्वागत करता हुआ बोला-प्रभो । आज मेरा अहोभाग्य है । आज आपके पधारने से मेरा घर और मेरा जीवन पावन हो गया है । इस प्रकार कहते हुए वह सुदत्त अनगार को अपनी भोजन शाला में ले गया वहाँ अत्यन्त पवित्र और उत्कृष्ट भाव से अनगार को चार प्रकार का एषणीय आहार बहराया ।