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आगम के अनमोल रत्न
किया ही नहीं था । अतः - पिंगल के प्रश्नों का जबाब देना उसकेलिये असंभव हो गया । वह स्वयं सन्देहशील बन गया । इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व वह स्वयं इस बात का निर्णय कर लेना चाहता था । अतः उस समय स्कन्धक चुप रह गया । उसने पिंगल के प्रश्नों का कुछ भी जवाब नहीं दिया ।
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स्कन्धक के मन में उन प्रश्नों का समाधान पाने की उत्कट इच्छा थी । जब उन्होंने सुना कि भगवान महावीर स्वामी कृतङ्गला नगरी के बाहर छत्रसाल उद्यान में विराज रहे हैं, तो उसके मन में बहुत प्रसन्नता हुई । लोगों के मुँह से भगवान के ज्ञान दर्शन की प्रशसा सुन कर उसके मन में भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न हो गई । उसे विश्वास हो गया कि मेरे प्रश्नों का सही समाधान भगवान महावीर से ही हो सकता है। उसने अपने भण्डोपकरण लिये और भगवान के निकट पहुँचने के लिये रवाना हुआ !
इधर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार से इस प्रकार कहा- हे गौतम! आज तू अपने पूर्वभव के के साथी को देखेगा । तब गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! मै आज अपने किस पूर्वभव के साथी को देखूँगा ? तब भगवान ने कहा- स्कन्धकपरिव्राजक को । कत्यायन गोत्री स्कन्धक परिव्राजक गर्दभाली परिव्राजक का शिष्य है और वह श्रावस्ती में रहता है । अपने प्रश्नों का समाधान पाने के लिये वह मेरे पास भा रहा है । यह बात चल ही रही थी कि इतने में स्कन्धक परिव्राजक भगवान के पास आ पहुँचा । स्कन्धक परिव्राजक को आता देख गौतम स्वामी अपने आसन
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से उठे और स्कन्धक के सामने गये । स्कन्धक. का सम्मान करते हुए गौतमस्वामी बोले- हे स्कन्धक ! स्वागत है
सुस्वागत है, तुम्हारा ।
आना स्वागतार्ह है । पुनश्च गौतमस्वामी ने कहा- हे स्कन्धक ! श्रावस्ती में वैशालिक श्रावक पिंगलक निर्ग्रन्थ ने तुम से पांच प्रश्न किये थे उन्हीं का समाधान प्राप्त करने के लिये ही तुम यहाँ आये
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