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आगम के अनमोल रत्न
वान का आगमन हुआ और उसने उनके पास प्रवज्या प्रहण की । स्थविरों के पास रहकर भंगसूत्रों का अध्ययन किया । अन्त में मासिक संलेखना पूर्वक देवलोक प्राप्त किया । वरदत्तकुमार का जीव देव और मानव भव प्राप्त करता हुमा सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा । वहां से चवकर वह महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ कुमार की तरह सिद्धि प्राप्त करेगा।
स्कन्धक अनगार __ भगवान महावीर के समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। इस नगरी के बाहर ईशान कोण में छत्रपलाशक नाम का उद्यान था । एक समय केवलज्ञान केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर का वहाँ भागमन हुआ । जनता धर्मोपदेश सुनने के लिये गई ।
उस कृतङ्गला नगरी के पास ही में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उप श्रावस्ती नगरी में कात्यायन गोत्री गर्दभाली परिव्राजक का शिष्य स्कंधक नाम का परिव्राजक रहता था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद, इन चारों का तथा इतिहास पुराण और निघन्टु नामक कोष का ज्ञाता था । षष्ठितंत्र में वह विशारद था । गणित शास्त्र, शिक्षा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, व्याकरण, छन्द, व्युत्पत्ति, आचार इन सव शास्त्रों में तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण और परिवाजक सम्बन्धी नीति शास्त्रों में वह बड़ा निपुण था।
श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्य था । एक समय वह कात्यायन गोत्री स्कंधक परिबाजक के पास पहुँचा और उनसे पूछने लगा-हे मागध ! क्या लोक सान्त है ? (अन्त वाला) है ? या अनन्त, (अन्त रहित) है ? क्या जीव सांत है ? या अनन्त है ? किस भरण से मरता हुआ जीव संसार बढ़ाता है और किस मरण से मरता हुआ जीव संसार घटाता है ?
पिंगल निर्गन्य के प्रश्नों को सुनते ही स्कन्धक स्तमित रह गया। उसके सामने ये प्रश्न नये ही थे । इस विषय में उसने कभी विचार