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आगम के अनमोल रत्न
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वैभव तथा कुटुम्बी जनों के मोह सम्बन्ध को छोड कर रुचि पूर्वक त्याग धर्म स्वीकार कर लिया । वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और परिग्रह रूप पांच महाव्रतों का तथा रात्रि भोजन आदि सदाचारों का पालन करने लगा और आने वाले परिषहों को जीतने लगा । इस प्रकार वह विद्वान मुनिवर जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म पर दृढ़ बनकर साधु के उद्दिष्ट मार्ग पर गमन करने लगा । इस प्रकार उत्तम संयम धर्म का पालन कर अन्त में केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का स्वामी हुआ जिस प्रकार प्रकाश मण्डल में सूर्य शोभित होता है उसी प्रकार वह मुनिश्वर भी इस महिमण्डल पर अपने आत्म प्रकाश से दीप्त होने लगा।
पुण्य और पाप इन दोनों प्रकार के कर्मों का सर्वथा नाश कर वह समुद्रपाल मुनि शरीर के मोह से सर्वथा छूट गया। शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुआ और संसार रूपी समुद्र से तिर कर वह महामुनि मोक्ष गति को प्राप्त हुआ।
प्रथम केशीकुमार श्रमण भगवान पार्श्व की परम्परा के आचार्य । ये चार ज्ञान से सम्पन्न और चौदह पूर्व के ज्ञाता थे । एक समय पाच सौ शिष्य समूह के साथ श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान में ठहरे हुए थे। उस समय श्वेताम्बिका नगरी के राजा प्रदेशी का चित्त नामक सारथी जितशत्रु राजा को भेंट पहुँचाने के लिये आया था। वह केशीकुमार श्रमण के पास गया और उपदेश सुन उनका उरासक बन गया । उसने श्रावक के व्रत ग्रहण किये ।
एक दिन चित्त ने केशी श्रमण से निवेदन किया-"भगवन् ! श्वे. ताम्बिका नगरी का राजा प्रदेशो नास्तिक है ! वह आत्मा और परलोक के अस्तित्व को नहीं मानता, अत. आप उसे समझाने के लिये श्वेताम्बिका पधारें । केशी ने चित्त की बात मन ली । वे विहार