________________
५३०
आगम के अनमोल रत्न
साथ वह सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर पहुँच गया । सब को प्रिय लगने वाला, सौम्यकान्तिधारी वह बालक वहाँ सुख पूर्वक बढ़ने लगा। योग्य वय होने पर उसे शिक्षागुरु के पास भेजा गया । विलक्षण बुद्धि के कारण शीघ्र ही वह बहत्तर कलाओं तथा नीति शास्त्र में पारंगत हो गया । जब वह यौवन को प्राप्त हुआ तब उसके पिता ने अप्सरा जैसी सुन्दर एक महारूपवती कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया । विवाह होने के पश्चात् समुद्रपाल उस कन्या के साथ रमणीय महल में रहने लगा और दोगुन्दक देव के समान कामभोग भोगता हुआ सुखपूर्वक समय बिताने लगा।
एक दिन वह अपने महल की खिड़की में से नगरचर्या देख रहा था कि इतने में फांसी पर चढ़ाने के लिये वध्यभूमि की तरफ मृत्यु दण्ड के चिह्न सहित ले जाते हुए एक चोर पर उसकी दृष्टि पड़ी। उस चोर को देखकर उसके हृदय में कई तरह के विचार उठने लगे । वह सोचने लगा--"अशुभ कर्मों के कैसे कड़वे फल भोगने पड़ते हैं। इस चोर के अशुभ कर्मों का उदय है इसी से इसको यह कडुमा फल भोगना पड़ रहा है । यह मै प्रत्यक्षे देख रहा हूँ । जो जैसा करता है वह वैसा भोगता है, यह अटल सिद्धान्त समुद्रपाल के प्रत्येक अंग में व्याप्त हो गया । कर्मों के इस भटल नियम ने उसके हृदय को कंपा दिया । वह विचारने लगा, मेरे लिये इन भोग जन्य सुखों के कैसे दुःखदायी परिणाम होंगे ? मैं क्या कर रहा हूँ ? यहाँ आने का क्या कारण है ? " इत्यादि भनेक प्रकार के तर्क वितर्क उसके मन में पैदा होने लगे । इस प्रकार गहरे चिन्तन के परिणाम स्वरूप उसको जातिस्मरण ज्ञान पैदा हो गया । अपने पूर्वभव को देखकर उसे वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया । अपने माता पिता के पास जाकर दीक्षा लेने की भाज्ञा मांगने लगा । माता पिता की आज्ञा प्राप्त कर उसने दीक्षा अङ्गीकार की और संयम धारण कर साधु बन गया। महाक्लेष, महाभय, महामोह तथा भासकि के मूल कारण रूपी धन