________________
आगम के अनमोल रत्न
नहीं होता और प्रवजित होने में सोच नहीं करता किन्तु भार्य वचनों में रमण करता है, उसी को मे ब्राह्मण कहता हूँ ।
हे विप्र ! जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना निर्मल होता है, उसी प्रकार जो राग द्वेष और भयादि से रहित है, उसी को मै ब्राह्मण कहता हूँ। जो तपस्वी, सुत्रतों के पालन से निर्वाण प्राप्त करने वाला, कृशकाय, त्रस और स्थावर प्राणियों की तोन करण, तीन योग से हिंसा न करने वाला, क्रोध, मान, लोभ, हास्य तथा भय से भी असत्य नहीं वोलनेवाला, अदत्त को ग्रहण नहीं करनेवाला, तथा शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला है उसे हो मै ब्राह्मण कहता हूँ । जलकमल की तरह काम भोगों में अनासक्त, अलोलुप, भिक्षाजीवी, अनगार अकिंचन तथा गृहस्थों में जो अनासक्त हैं उन्हीं को मैं ब्राह्मण कहता हूँ ।
हे विप्र ' सभी वेद, पशुओं के वध के लिये हैं और यज्ञ, पापकर्म का हेतु है । ये वेद और यज्ञ, यज्ञकर्ता दुराचारी का रक्षण नहीं कर सकते क्योंकि कर्म अपना फल देने में बलवान है । केवल सिर मुण्डाने से कोई श्रमण नहीं होता न ॐकार के रटने से ब्राह्मण होता है । अरण्य में वसने मात्र से कोई मुनि नहीं हो जाता और न वल्कलादि पहनने से कोई तापस हो सकता है ।
समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ये सब कर्म से होते हैं । हे ब्राह्मण ! इस धर्म को सर्वज्ञ ने प्रकट किया है जिसके आचरण से विशुद्ध होकर सभी कर्म से मुक्त हो जाते हैं । ऐसे उत्तम धर्म का पालन करनेवाले को ही हम ब्राह्मण कहते हैं । उपर्युक्त गुर्गो से युक्त द्विजोत्तम ही स्वपर का कल्याण करने में समर्थ होते हैं ।
इस प्रकार कहने के बाद उन्होंने श्रमण-धर्म का प्रतिपादन किया । संशय के छेदन हो जाने पर विजयघोष ने विचार करके जयघोष मुनि को पहिचान लिया कि जयघोष मुनि उनके भाई हैं । विजयघोष ने
५३७
w