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आगम के अनमोल रत्नः जयघोष की प्रशंसा की। जयघोष ने उन्हें निर्गन्थ प्रवचन सुनाया । उनका उपदेश सुनकर विजयघोष ने दीक्षा लेली और अन्त में दोनों श्रमणों ने सिद्धि प्राप्त की।
जालिकुमार राजगृह नाम का नगर था। वह धन धान्य से समृद्ध था। वो गुणशील नामक चैत्य था । वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करते थे। उसकी रानी का नाम धारिणी था। धारिणी रानी ने स्वप्न में सिंह को देखा। कुछ काल के बाद रानी ने जाली नामक कुमार को जन्म दिया। युवावस्था में जालीकुमार का आठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ और आठ दहेज मिले। उत्तन प्रासाद में निवास करता हुआ जाली कुमार भोग-विलास में रत रहने लगा।
भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे । राजा श्रेणिक यह जान कर भगवान के दर्शन के लिये चला। जाली कुमार ने भी भगवान, के दर्शन के लिये प्रस्थान किया। दर्शन करने के पश्चात् जाली कुमार ने माता पिता की अनुमति लेकर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली और उसने स्थविरों की सेवा में रहकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया ।
अध्ययन के बाद उसके गुणरत्न नामक तप किया। और भी कई प्रकार के विभिन्न तप किये। तप से उसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया और उसने संथारा करने का निश्चय किया। भगवान की आज्ञा प्राप्त कर वह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गया। वहाँ एक शिलापट्ट पर यावज्जीवन का संथारा किया। आयुष्य के अन्त में मरण करके वह विजय विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। जाली कुमार ने सोलह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया। देवलोक से च्युत होकर आली कुमार महाविदेह क्षेत्र में सिद्धत्व प्राप्त करेंगे। ।
अनन्तर स्थविरों ने जालौ भनगार को दिवंगत जानकर उसका परिनिर्वाण-निमित्तक कायोत्सर्ग किया। इसके बाद उन्होंने जाली कुमार