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आगम के अनमोल रत्न
गौतम स्वामी शिष्य मण्डली सहित वेशी कुमार श्रमण के पास गये। केशी श्रमण ने गौतमस्वामी का सम्मान किया । उन्हें बैठने के लिये दर्भ का भासन किया । उस समय उन दोनों का वार्तालाप सुनने के लिए अनेक देवता और श्रोता गग उपस्थित हुए । दोनों में इस प्रकार वार्तालाप हुआ~
केशी-"महाभाग ! मै आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।" गौतम-"भदन्त ! इच्छानुसार पूछिये ।"
केशी-"चार प्रकार के चारित्र-रूप धर्म को महावीर ने पांच प्रकार का क्यों बताया ? जब दोनों का एक ही ध्येय है तव इस अन्तर का कारण क्या है ?"
गौतम-पार्वनाथ के समय में लोग सरल प्रकृति के थे, इसलिये वे चार में पंच का अर्थ कर लेते थे । अव कुटिल प्रकृति के लोग हैं। उनको स्पष्ट समझाने के लिए ब्रह्मचर्य के विधान की अलग आवश्यकता हुई।
केशी श्रमण-~महावीर भगवान ने अचेलक धर्म का विधान क्यों "किया ?
गौतम-विज्ञान से आनकर ही धर्म साधनों ही आज्ञा दी गई है । लोक में प्रतीति के लिये, संयम-निर्वाह के लिये, ज्ञानादि ग्रहण के लिए और वर्षा कल्प आदि में संयम पालने के लिए उपकरण और लिंग की आवश्यकता है। वास्तव में तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र हो मोक्ष के साधक हैं, लिंग नहीं ।
केशी-आपके उत्तरों से मुझे सन्तोष हुआ। अव यह वताइये कि हजारों शत्रुओं के बीच रह कर आपने उन्हें कैसे जीता ?
गौतम-एक अशुद्धात्मा को जीत लेने पर पांचों (अशुद्धात्मा और चार कषाय) जीत लिये जाते हैं और इन पाचों के जीत लेने पर दस जीत लिये जाते हैं और दस के जीतने पर हजारों जीत लिये जाते हैं।