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आगम के अनमोल रत्न
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उसने मुनि को दु:खी करने के इरादे से कहा-आप इस मार्ग से जा सकते हैं। मुनि सोमदेव की बात पर विश्वास रखकर उस मार्ग पर चलने लगे । शंख मुनि लब्धि सम्पन्न थे । उनके चरण स्पर्श से हुतावह मार्ग बर्फ जैसा ठंडा हो गया ।" मुनि को शान्तभाव से मार्ग को पार करते हुए देख पुरोहित को बड़ा भाश्चर्य हुआ।
वह भी घर से निकला और हुतावह मार्ग पर चला मार्ग को वर्फ जैसी ठंडा पाकर उसे अपने कुर्म पर पश्चाताप होने लगा और वह विचारने लगा -"मे कितना पापी हूँ कि अग्नि- सरीखे उत्तप्त मार्ग पर चलने के लिये मैने इस महात्मा से कहा । यह निश्चय ही कोई वढे महात्मा मालूम होते हैं।" ऐसा विचार करता हुआ वह मुनि के पास आया और उनके चरणों में गिर पडा । शंख मुनि ने उसे उपदेश दिया । मुनि का उपदेश सुन सोमशर्मा ने दीक्षा ग्रहण की और कठोर तप करने लगा। किन्तु उसे अपने जाति कुल और रूप का अभिमान था । जिसकी वजह से उसने नीच गोत्र का बन्धन किया | वहाँ से मर कर वह देवलोक में देव बना ।
गंगा नदी के तीर पर बलकोट नामक चण्डालों की बस्ती थी। वहाँ हरिकेश नामक चण्डालों का मुखिया रहता था। उसकी दो स्त्रियाँ थी । एक का नाम गोरी और दूसरी वा गान्धारी था । सोमदेव का जीव देवलोक से चवकर गौरी के उदर मे आया । गर्भ काल के पूर्ण होने पर गौरी ने एक कुरूप पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम हरिकेशवल रखा । हरिवेशवल स्वभावसे ही उद्दण्ड प्रकृति का था । वह अपने साथी बालकों को मारता पीटता था । उसके उद्दण्ड स्वभाव से सभी लोग परेशान थे । उसकी कुरूपता और उदण्ड-स्वभाव के कारण माता पिता भी उसका तिरस्कार करने लगे ।
एक बार वसन्तोत्सव के अवसर पर सभी लोग एकत्र होकर उत्सव मना रहे थे। उस समय यह हरिकेशवल भी उनके साथ था ।