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'आगम के अनमोल रत्न
५०७. जा रहा है। आप जानते हैं कि मै भिक्षा से ही भाजीविका करने वाला हूँ इसलिये मुझ तपस्वी को आहार देकर लाभ प्राप्त करो।
ब्राह्मणों ने कहा-यह आहार केवल ब्राह्मणों के लिये ही बनाया गया है । अतः यह अन्न तुझे नहीं देंगे। तू व्यर्थ में यहाँ क्यों खड़ा है ?
मुनि ने कहा-विप्रो ! जिस प्रकार फल की आशा से कृषक ऊँची और नीची भूमि में खेती करते हैं उसी प्रकार आप भी मुझे श्रद्धा से भिक्षा देकर पुण्य उपार्जन करो।
ब्राह्मण-लोक में जो पुण्य क्षेत्र हैं, उन्हे हम जानते हैं जिनमें बहुत ही पुण्य होता है । जो जाति और विद्या से सम्पन्न ब्राह्मण हैं वे निश्चय ही उत्तम क्षेत्र हैं।
मुनि- जिनमें क्रोध मानादि और हिंसा मृषा अदत्त तथा परिग्रह है वे ब्राह्मण जाति और विद्या से हीन है । ऐसे क्षेत्र निश्चय ही पापकारी हैं । आप लोग तो शब्द के भारवाहक हो। आप वेद सीख करके भी उसका अर्थ नहीं जानते । जो मुनि ऊँच नीच कुल में से भिक्षा लेते हैं, वे ही दान के सुन्दर क्षेत्र हैं।
मुनि के वचन सुनकर वहाँ उपस्थित छात्र बोले-'तू हमारे सामने अध्यापकों के विरुद्ध क्या बक रहा है ? हे निग्रन्थ ! यह आहार पानी भले ही नष्ट हो जाय, पर हम तुझे नहीं देंगे।' ___ यक्षाविष्ट मुनि वोले-हे मार्यो ! मुझ जैसे सुसमाधिवंत एवं स्तेिन्द्रिय को यह एषणीय आहार नहीं दोगे तो तुम यज्ञों का फल क्या पा सकोगे ?
मुनि के वचन सुनकर अध्यापक बड़े युद्ध हुए और वे चिल्ला चिल्ला कर बाले-अरे ! यहाँ कोई क्षत्रिय यज्ञ रक्षक क्षात्र या अध्यापक हैं ? इस साधु को दण्ड या मुष्टि से मारकर और गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दो । अध्यापक की बात सुनकर बहुत से क्षात्रगण दौड़ आये और मुनि को लाठी वेंत और चावुक से मारने लगे।
उन संयती को मारते हुए कुमारों को देखकर कोशल नरेश की राजकुमारी भद्रा उन्हें शान्त करती हुई बोली-अरे ! आप लोग यह