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आगम के अनमोल रत्न
• क्या कर रहे हैं । देवाभियोग से प्रेरित हुए राजा द्वारा मैं मुनि
को दी गई थी, किन्तु उन मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा । - नरेन्द्र और देवेन्द्र से पूजित ये वे ही ऋषि हैं जिन्होंने मुझे त्याग दिया था ।
__ ये उग्र तपस्वी जितेन्द्रिय संयती और ब्रह्मचारी हैं और महा यशस्वी महात्मा हैं। ये अनिन्दनीय पुरुष है इनकी निन्दा मत करो । कहीं अपने तप तेज से ये आप सबको भस्म नहीं कर दें।
____ इधर कुमारों की उद्दण्डता देखकर यक्ष कुमारों पर बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने आकाश में रहकर रौद्र रूप धारण किया और कुमारों को मारने लगा । यक्ष की मार से कुमारों के मुख पीठ की ओर झुक गये थे। 'भुजाएँ फैल गई थीं । आँखे फटी हुई और मुँह ऊपर की तरफ हो गये थे। उनकी जीभ बाहर निकल आई और मुंह से खून बहने लगा।
कुमारों की यह स्थित देखकर ब्राह्मण घबरा गये । वे अपनी अपनी भार्याओं के साथ आ कर मुनि को प्रसन्न करने के लिये कहने लगे-हे भगवन् ! हमने आपकी अवज्ञा की है, निन्दा की है अत. क्षमा प्रदान • करें । इन मूढ अज्ञानी बालकों ने आपकी जो अवहेलना की है इसके लिये आप क्षमा करें । ऋषि तो महाकृपालु होते हैं वे कोप नहीं करते ।
मुनि ने कहा-मेरे मन में न तो पहले द्वेष था न है, और न आगे होगा किन्तु मेरी सेवा में रहने वाले यक्ष ने ही इन कुमारों को मारा है।
मुनि ने ब्राह्मणों को क्षमा कर दिया । उसके बाद उन्होंने यज्ञमण्डप में आहार को ग्रहण कर मास खमण का पारणा किया ।
मुनि के आहार ग्रहण करने पर समीपस्थ देवताओं ने वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट किये।
इसके बाद ब्राह्मणों को धर्मका स्वरूप समझाते हुए मुनि कहने 'लगे हे ब्राह्मणो ! तुम अग्नि का आरंभ क्यों करते हो । जलसे ऊपरी