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आगम के अनमोल रत्न
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समय में पंडित बन गये । अब वे गुरु को भाज्ञा देकर एकाकी विचरने लगे और कठोर तप करने लगे ।
हरिकेशवल मुनि विहार करते करते एक बार वाराणसी नगरी के तिदुग उद्यान में पधारे और वहां ध्यान करने लगे। वहीं तिदुग नाम का यक्ष रहता था । हरिकेशबल मुनि की कठिन तपस्या को देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुमा और मुनि की सेवा करने लगा।
एक वार वाराणसी नगरी के राजा कोशलिक की पुत्री 'भद्रा' अपनी 'दास दासियों के साथ उद्यान में धूमने आई। घूमकर जब वह वापस लौट रही थी तब उसकी दृष्टि वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ भुनि हरिकेशबल पर पड़ी । मुनि के मलीन वस्त्र व उनकी कुरूपता को देखकर उसने उनपर थूक दिया । राजकुमारी का मुनि के प्रति इस घृणित व्यवहार से तिदुक यक्ष अत्यन्त युद्ध हुआ । उसने राजकुमारी को शिक्षा देने के लिये तत्काल उसका मुख वक्र कर दिया । राजकुमारी की इस दुर्दशा का समाचार राजा के पास पहुँचा । राजा घबरा कर राजकुमारी के पास आया । अपनी पुत्री की इस दुर्दशा को देखकर वह अत्यन्त चिन्तित हुआ । उसने अच्छे-अच्छे वैद्यों से उसकी चिकित्सा करवाई किन्तु कुछ भी लाभ नहीं हुआ।
उस समय तिंदुग यक्ष मुनि के शरीर में प्रवेश कर बोला-राजन् ! तुम्हारी कन्या ने मेरा अपमान किया है । अगर यह मुझसे विवाह करने को तैयार हो तो मै इसे ठीक कर सकता हूँ। राजा ने यह चात स्वीकार कर ली । “भद्रा" पहले की तरह स्वस्थ हो गई। इसके बाद राजा ने उस कन्या को नानाविध अलकारों से अलंकृत करके और विवाह के योग्य बहुमूल्य उपकरणों के साथ कन्या को लेकर मुनि के पास आया और कन्या के साथ विवाह करने की प्रार्थना करने लगा । उस समय तिदुग यक्ष मुनि के शरीर में से निकल गया । मुनि को जन चेतना आई तो सामने राजा को प्रार्थना की मुद्रा में खड़ा पाया । राजा की प्रार्थना सुनकर मुनि बोले राजन् !