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आगम के अनमोल रत्न
देखते अपने भाई की याद में रो पड़ी। रानी को रोता देख राजा ने वा मार की ओर देखा तो उनकी दृष्टि मुनि पर पड़ी । राजा संशयग्रस्त हो गया । वह सोचने लगा--"यह भिक्षुक अवश्य मेरी रानी का पूर्व प्रेमी होगा । इसीलिये रानी इसे देख कर रो रही है। राजा उसी क्षण कुछ बहाना बनाकर वहाँ से उठा और अपने महल में भाकर अपने चाण्डालों को बुलवाया और कहा कि "इस भिक्षुक की एड़ी से चोटी तक की खाल उतार कर मार डालो ।"
राजाज्ञा को पाकर चाण्डाल मुनि के पास आये और उन्हें पकड़ कर वध भूमि में ले गये । वहाँ राजाज्ञा सुनाकर उन्होने तीक्ष्ण शस्त्रों से मुनि के शरीर की चमड़ी उतारनी शुरू की । मुनि इस मरणान्त संकट में भी अत्यन्त धैर्य धारण किये हुए थे। वे शरीर और आत्मा की भिन्नता का विचार करते हुए समता रस का पान करने लगे । अपूर्व क्षमा और धैर्य के कारण मुनि ने समस्त कर्म खपा डाले । वे अन्त में सिद्ध बुद्ध और मुक्त गये ।
मुनि को मारकर चाण्डाल वहाँ से चले गये । उस समय मुनि के रक्त से सनी हुई मुखवस्त्रिका को मांस समझ कर चील उठाकर ले गई । अधिक भार होने से वह रानी के महल की अगासी पर चील की चोंच से गिर पड़ी । रानी रक्त से सनी मुखवस्त्रिका को देखकर विचार में पड़ गई। उसने सोचा अवश्य ही आज मुनि की हत्या किसी ने की है । तलाश करने पर पता चला कि उसके भाई स्कन्धक को राजा ने चमड़ी उतरवा कर मार डाला है । वह भाई की मृत्यु से दुःखी हुई। राजा को भी जब पता चला कि "मैने जिस मुनि की हत्या करवाई है वह मेरा साला ही था तो राजा को भी अपने दुष्कृत्य का अत्यन्त खेद हुआ ।"
एक बार कोई ज्ञानी मुनिराज कांचीनगर आये। राजा और रानी मुनि दर्शन के लिए गये । मुनि का प्रवचन सुनने के बाद राजा ने कहा-भगवन् ! मेरे द्वारा किस पाप के उदय से मुनि हत्या हुई है ?